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( ३.१ ),
विशेष अभ्यास मुझे नही है, इसलिये में शक्ति हीन हूँ, फिर भी धर्मानुराग के वश टीका करने का विचार किया है, उसमें जहाँ जहाँ भूल हो, अन्यथा अर्थ हो जाय वहाँ वहाँ मेरे ऊपर क्षमा करके उस अन्यथा अर्थ को दूर करके यथार्थ अर्थ लिखना, इस प्रकार विनति करके जो भूल होगी उसे शुद्ध होने का उपाय किया है ।
प्रश्न ६ - आपने टीका करने का विचार किया वह तो अच्छा' किया है किन्तु ऐसे महान् ग्रन्थ की टीका संस्कृत हो चाहिये, भापा मे तो उसकी गंभीरता भासित नही होगी ?
उत्तर - इस ग्रन्थ की जीवतत्त्व प्रदीपिका नामक संस्कृत टीका तो पूर्व है ही । किन्तु वहाँ संस्कृत गणित आम्नाय आदि के ज्ञान रहित जो मन्दबुद्धि है उसका प्रवेश नही होता । यहाँ काल दोष से बुद्धि आदि के तुच्छ होने से सस्कृतादि के ज्ञान रहित ऐसे जीव बहुत हैं उन्ही को इस ग्रन्थ के अर्थ का ज्ञान होने के लिये भाषा टीका करता हूँ | जो जोव संस्कृतादि विशेष ज्ञानवान है वह मूल ग्रन्थ वा टीका से अर्थ धारण करे। जो जीव संस्कृतादि विशेष ज्ञान रहित हैं वे इस भाषा टीका से अर्थ ग्रहण करे । और जो जीव संस्कृतादि ज्ञान सहित है परन्तु गणित आम्नायादिक के ज्ञान के अभाव से मूल ग्रन्थ का वा संस्कृत टीका में प्रवेश नही पा सकते हैं वे इस भाषा टीका से अर्थ को धारण करके मूल ग्रन्थ वा संस्कृत टीका मे प्रवेश करे । और जो भापा टीका से मूल ग्रन्थ वा संस्कृत टीका मे अधिक अर्थ हो सके उसको जानने का अन्य उपाय बने उसे करे ।
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प्रश्न १० - संस्कृत ज्ञानवालो को भाषा अभ्यास में अधिकार नहीं हैं ?
उत्तर - संस्कृत ज्ञानवालो को भापा बाचने से तो दोष आते नही हैं, अपना प्रयोजन जैसे सिद्ध हो वैसे ही करना । पूर्व मे अर्द्धमागधी आदि भाषामय महाग्रन्थ थे जब बुद्धि की मन्दता जीवो के हुई सब संस्कृतादि भाषामय ग्रंथ बने । अब विशेष बुद्धि की मदता जीवो को हुई उससे देशभाषामय ग्रंथ करने का विचार हुआ । सस्कृतादि अर्थ