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जैन शिलालेख - संग्रह
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समय १८वीं सदीका अन्तिम चरण है ।
(इ) राजाश्रय के विषय में साधारण विचार - उपर्युक्त विवरणसे यह स्पष्ट होता है कि जैन संघको प्रायः सभी राजवंशोंके समय - विशेषकर दक्षिण भारतीय राजवंशोंके समय अपने धर्मकार्योंमें अच्छी सहायता मिली है । इस सम्बन्ध में एक बातका ध्यान रखना चाहिए कि इनमें से अधिकाश राजाओंका कुलधर्म जैनधर्म नहीं था वे विष्णु, शिव, सूर्य या लक्ष्मीके उपासक थे । तथापि उनकी प्रजामे जैन आचार्योंका अच्छा प्रभाव रहा होगा अतः जैन संघके विषयमे उनकी नीति सहानुभूतिपूर्ण रही है ।
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४ जैन संघकी दुरवस्था - बारहवीं सदीसे दक्षिण भारतमें वीरशैव तथा श्रीवैष्णव सम्प्रदायोंका प्रभाव बढता गया तथा इनके आक्रामक रुखका परिणाम जैन आचार्यों तथा मठ-मन्दिरोको सहना पड़ा । इसके प्रत्यक्ष उल्लेख पहले संग्रहके दो लेखो मे है । इस संग्रहके कई लेखोंसे अप्रत्यक्ष रूपसे यही बात स्पष्ट होती है - ये लेख विष्णुमन्दिरों तथा शिवमन्दिरोंमे लगे पाये गये है | स्पष्ट है कि जैन मन्दिरोके ध्वंसावशेषोसे ही ये पत्थर
१. पहले संग्रह में मैसूरके राजाओंके कई लेख हैं ।
२. जिन्हें हम 'जैन' राजा कह सकते हैं ऐसे राजाभोंकी संख्या सीमित ही है - कलिंगके खारवेल, नवीं सदीसे दसवीं सदी तकके गंग राजा, दसवीं- ग्यारवीं सदीके होयसळ राजा तथा कुछ सामन्त ये जैन राजा कहे जा सकते हैं। आठवीं सदी तकके गंग राजा तथा बारहवीं सदी के तथा बादके होयसल राजा भी विष्णु, शिव भादिके उपासक थे ।
३. यहाँ उल्लिखित राजवंशों के राजनीतिक प्रभाव, राज्यविस्तार आदिके बारेमें तीसरे भागकी प्रस्तावना में डॉ० चौधरीने विस्तारसे लिखा है अतः वे बातें यहाँ दुहरायी नहीं हैं ।
४. लेख क्र० ४३५-३६ ।