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जैन पूजाँजलि
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शुद्धातम ही परमज्ञान है, शुद्धातम पवित्र दर्शन । यही एक चारित्र परम है, यही एक निर्मल तप धन ।।
दो इन्द्रिय त्रस हआ भाग्य से पार न कष्टों का पाया । जन्म तोन इन्द्रिय भी धारा दख का अन्त नहीं आया ।। चौ इन्द्रिय धारी बनकर मैं विकलत्रय में भरमाया । पचेन्द्रिय पशु सैनी और असैनी हो बहु दुख पाया। बड़े भाग्य से प्रबल पुण्य से फिर मानव पर्याय मिली । मोह महामद के कारण हो नहीं ज्ञान की कली खिली ।। अशभ पाप आश्रव के द्वारा नर्क आय का बंध सहा । नारकीय बन नरको में रह ऊष्ण शीत दुख द्वन्द सहा ।। शभ पुण्याश्रव के कारण मैं स्वर्ग लोग तक हो आया। प्रैवेयक तक गया किन्तु शाश्वत सुख चैन नहीं पाया ।। देख दूसरे के वैभव को अर्तरौद्र परिणाम किया । देव आयु क्षय होने पर ऐकेन्द्रिय तक में जन्म लिया । इस प्रकार धर धर अनन्त भव चारों गतियों में भटका। तीव्र मोह मिथ्यात्व पाप के कारण इस जग में अटका ।। महापुण्य के शुभ सँयोग से फिर यह नर तन पाया है। देव आपके चरणों को पाकर यह मन हर्षाया है ।। जनम जनम तक भक्ति तुम्हारी रहे हृदय में हे जिनदेव । वीतराग सम्यक् पथ पर चल पाऊँ सिद्ध स्वपद स्वयमेव ॥ भरत क्षेत्र से कुन्द कुन्द मुनि ने विदेह को किया प्रयाण । प्रभो तुम्हारे समवशरण के दर्शन कर हो गये महान ।। आठ दिवस चरणों में रहकर ओंकार ध्वनि सुनी प्रधान । भरत क्षेत्र में लौटे मुनिवर सुनकर वीतराग विज्ञान ।। करुणा जागी जीवों के प्रति रचा शास्र श्री प्रवचन सार । समयसार पचास्तिकाय श्रुत नियमसार प्राभृत सुखकार ।। रचे देव चौरासी पाहड़ प्रभु वाणी के ले आधार । निश्चयनय भूतार्थ बताया अभूतार्थ सारा व्यवहार ॥ पाप पुण्य दोनों बन्धन हैं जग में भ्रमण कराते हैं । राग मात्र को हेय जान जानी निज ध्यान लगाते हैं । निज का ध्यान लगाया जिसने उसको प्रगटा केवल ज्ञान । परम समाधि महा सुखकारी निश्चय पाता पद निर्वाण ॥