Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 191
________________ जैन पूजांजलि जाग जाग रे जाग अभी तू निज आतम का करले भान । ཏྭཱ धर्म नहीं दुखरूप धर्म तो परमानंद स्वरूप महान || सदासदा नवदेव शरण पा मैं अपना कल्याण करूं । जब तक सिद्ध स्वपद ना पाऊँ हे प्रभु पूजन ध्यान करूं ॥ ॐ ह्रीं श्री अर्ह तसिद्ध आचार्योपाध्याय सर्वसाधु जिनवाणी जिनमंदिर जिन प्रतिमा जिनधर्म नवदेवेभ्यां अनर्घ पद प्राप्ताय पूर्णार्धम् नि० । * इत्याशीर्वादः मंगलोत्तम शरण हैं नव देवता महान । भावपूर्ण जिन भक्ति से होता दुख अवसान || ॐ ह्रीं श्री जिन नवदेवताय नमः । जाप्य - ¤ ――― [ १७६ श्री नित्य नियम पूजन करूँ जय जय देव शास्त्र गुरु तीनों, मङ्गलदाता प्रभु पंच परम परमेष्ठी प्रभु के चरणों को मैं विद्यमान तीर्थङ्कर बोस विदेह क्षेत्र के करू तीन लोक के कृत्रिम अकीर्तम जिन चैत्यालय को परमोत्कृष्ट अनंत गुरण सहित सर्व सिद्ध प्रभु को वृषभादिक श्री वीर जिनेश्वर तीर्थङ्कर सब करूँ निज भावों की अष्ट द्रव्य ले सविनय नाथ करूँ पूजन । श्रद्धा पूर्वक भक्तिभाव से करता हूं जिन पद श्रर्चन ॥ ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्र ेषु पुष्पांजलि क्षिपामि । अनंतानुबंधी कषाय का नाश करूँ दो यह श्राशीष । मोह रूप मिथ्यात्व नष्ट कर दूं मैं समकित जल से ईश ॥ देव शास्त्र गुरु पाँचों परमेष्ठी प्रभु विद्यमान जिन बीस । कृत्रिम अकीतंम जिनगृह वन्दूं सर्व सिद्ध जिनवर चौबीस ॥ ॐ ह्रीं श्री सर्व जिन चरणाग्रेषु जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम निर्वपामीति स्वाहा | वंदन । नमन ॥ नमन । वंदन ॥ वन्दन । नमन ॥

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