Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 208
________________ १९६] जन पूजांजलि आत्म भूत लक्षण सम्यक् दर्शन का स्वपर भेद दिज्ञान । समकित होते ही होती है निर्विकल्प अनुभूति महान ॥ ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप सवंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनबिम्बेभ्यो पूर्णाध्यम् नि स्वाहा।। भाव सहित जो इन्द्रध्वज की पूजन कर हर्षाते हैं। निमिष मात्र में उनके संकट सारे ही मिट जाते हैं । x इत्यार्शीवाद: ४ जाप्य- ॐह्रीं श्री अर्हज्जाताय नमः । श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र पूजन मध्य लोक में ढाइ द्वीप के सिद्ध क्षेत्रों को वंदन । जंबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थ क्षेत्रों को वंदन ॥ श्री कैलाश आदि निर्वाण भूमियों को मैं कई नमन । श्रद्धा भक्ति विनय पूर्वक हर्षित हो करता हूं पूजन ॥ शुद्ध भावना यही हृदय में मैं भी सिद्ध बनूं भगवन । रत्नत्रय पथ पर चलकर मैं नाचूं चहुँ गति का क्रन्दन । ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्र अत्र मम् सन्निहितो भवभव वषट् । ज्ञान स्वभावी निर्मल जल का सागर उर में लहराता। फिर भी भव सागर भंवरों में जन्म मरण के दुख पाता । श्री सिद्ध क्षेत्रों का दर्शन पूजन गंदन सुखकारी । जो स्वभाव का आश्रय लेता उसको है भव दुखहारी॥ ___ॐ ह्रीं श्री समस्त सिद्ध क्षेत्रोभ्यो जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् निर्वपामीति स्वाहा ।

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