Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 207
________________ जैन पूजाँजलि निज निराकार से जुड़ जाओ साकार रूप का छोड़ ध्यान । आनंद अतीन्द्रिय सागर में बहते जाओ ले भेद ज्ञान ॥ [१९५ मेरु मंदिरों पर माला का चिन्ह ध्वजाओं में होता । विजयार की सर्वध्वजानों में तो वृषभ चिन्ह होता ॥ जंबूशाल्मलितरु के ध्वज पर अंकुश चिन्ह सरल होते । मानुषोत्तर इष्वाकारों के ध्वज गज शोभित होते ॥ वक्षारों के जिनमंदिर पर गरुड़ चिन्ह के ध्वज होते । गजदंतों के चैत्यालय पर सिंह विभूषित ध्वज होतें ॥ सर्व कुलाचल के जिनगृह पर कमल चिन्ह के ध्वज होते । नंदीश्वर में चकवा चकवी चिन्ह सुशोभित ध्वज होते ॥ कुन्डलवर गिरि में मयूर के चिन्ह विभूषित ध्वज होते । द्वीप रुचकवर गिरि मंदिर पर हंस चिन्ह के ध्वज होते ॥ महाध्वजा प्ररु क्षुद्र ध्वजाएं पंचवर्ण की होती हैं । जिन पूजन करने वालों के सर्व पाप मल धोती हैं ॥ सुर सुरांगना इन्द्र शची प्रभुगुण गाते हर्षाते हैं । नाच नाच कर परिहंतों के यश की गाथा गाते हैं । गीत नृत्य वाद्यों से झंकृत हो जाते हैं तीनों लोक । जय जयकार गूंजता नभ में पुलकित हो जाता सुरलोक ॥ इसीलिए इसको इन्द्रध्वज पूजन कहता है श्रागम । पुण्य उदय जिनका हो वे ही प्रभु पूजन करते अनुपम ॥ इन्द्र महा पूजा रचता है मध्यलोक में हितकारी । अब मिथ्यात्व तिमिर हरने की मेरी है प्रभु तैयारी ॥ प्रभु दर्शन से निज प्रातम का जब दर्शन इस पूजन का सम्यक् फल तब मुझको भी एक दिवस ऐसा आएगा शुद्ध भाव ही पाप पुण्य पर भाव का नाश कर सिद्ध लोक में होगा वास ॥ होगा पास । होगा स्वामी । होगा स्वामी ॥

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