Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 205
________________ जैन पूजांजलि [१९३ क्षण क्षण क्यों भाव मरण करता मिथ्यात्व मोह के चक्कर में। दिनरात भयंकर दुख पाता फिर भी रहता है पर घर में । प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की धूप बना लाऊँ । प्रष्ट कर्म अरि क्षय करने को निज स्वभाव में रम जाऊँ।तेरह. ___ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम् नि० स्वाहा । राग द्वेष परिणति अभाव कर निज परिणति के फल पाऊं। भव्य मोक्ष कल्याणक पाने निज स्वभाव में रमजाऊँ ॥ तेरह. ॐ ह्रीं मध्यलोक तेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिन बिम्बेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० स्वाहा। द्रव्य कर्म नो कर्म भाव कर्मों को जीत अर्घ लाऊं। देह मुक्त निज पद अनर्घ हित निज स्वभाव में रम जाऊं ॥ तेरह टीप चार सौ अट्ठावन जिन चैत्यालय वंदूं। इन्द्रध्वज पूजन करके मैं शुद्धातम को अभिनंदूं ॥ ॐ ह्रीं मध्यलोक नेरहद्वीप संबंधी चार सौ अट ठावन जिनालयस्थ शाश्वत जिनविम्बेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि० स्वाहा । (जयमाला) तेरहद्वीप महान के श्री जिन बिम्ब महान । इन्द्रध्वज पूजन करूं पाऊँ सुख निर्वाण ॥ • मेरु सुदर्शन, विजय, अचल, मंदिर, विद्युन्माली अभिराम । भद्रशाल, सौमनस, पांडक, नंदनवन शोभित सुललाम ॥ ढाइद्वीप में पंचमेरु के वंदू अस्सी चैत्यालय । विजयारध के एक शतक सत्तर वंदू मैं जिन आलय ॥ जंबू वृक्ष पांच मैं वंदू शाल्मलि तरु के पांच महान । मानुषोत्तर चार बार इष्वाकारों के चार प्रधान ॥

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