Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 202
________________ १९.] जैन पूजांजलि दृष्टि विकार याकि भेद को कभी नहीं करती स्वीकार। किन्तु अभेद अखांड द्रव्य निज ध्रुव को ही करती स्वीकार । कुन्थनाथ, अरनाय, मल्लि, प्रभु मुनिसुव्रत, नमिनाथ, जिनेश । नेमिनाथ, प्रभु पार्श्वनाथ, प्रभु महावीर, प्रभु महा महेश । पूज्य पंच कल्याण विभूषित वर्तमान चौबीसी जय । जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के तीर्थर प्रभु को जय जय ॥ ॐ ह्री भरत क्षेत्र संबंधी वर्तमान चतुविशति जिनेन्द्राय अर्घम् नि। श्री भविष्यकाल चौबीसी जय प्रभु महापद्म सुरप्रभ, जय सुप्रभ, जयति स्वयंप्रभ, नाय । सर्वायुध, जयदेव, उदयप्रभ, प्रभादेव, जय उदंक नाथ ॥ प्रश्नकोत्ति, जयकत्ति जयति जय पूर्णबुद्धि, नि:कषाय, जिनेश । जयति विमल प्रम, जयति बहुल प्रम,निर्मल, चित्र गुप्ति, परमेश ।। जयति समाधि गुप्ति, जय स्वयंभू, जय कर्दप, देव जयनाथ । जयति विमल, जय दिव्यवाद, जय जयति अनंतवीर्य, जगनाथ । जयति भविष्यकाल की श्री जिन चौबीसी को जय जय जय । जंबूद्वीप सु भरत क्षेत्र के तीर्थङ्कर प्रभु की जय जय ॥ ॐ ह्री भरत क्षेत्र संबंधी भविष्यकाल चतुविशति जिनेन्द्राय अर्घम् नि. जयमाला तीन काल त्रय चौबीसी के नमूं बहात्तर तीर्थङ्कर । विनय भक्ति से श्रद्धापूर्वक पाऊँ निज पद प्रभु सत्वर । मैंने काल प्रनादि गंवाया पर पदार्थ में रच पचकर । पर भावों में मग्न रहा मैं निज भावों से बच बचकर ॥ इसीलिए चारों गतियों के कष्ट अनंत सहे मैंने । धर्म मार्ग पर दृष्टि न डाली कर्म कपंथ गहे मैंने ॥ प्राच पुण्य संयोग मिला प्रभु शरण आपको मैं आया । भव भव के अघ नष्ट हो गए मानों चितामणि पाया।

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