Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 201
________________ जैन पूजजिलि तू अनंत धर्मों का पिंड अखंडपूर्ण परमातम है । स्वयं सिद्ध भगवान आत्मा सदा शुद्ध सिद्धातम है ॥ [ १८९ पंचाचार | पंच समिति त्रय गुप्ति पंच इन्द्रिय निरोध व्रत अट्ठाईस मूल गुण पालूं पंच लब्धि फल मोक्ष अपार ॥ भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्तमान तीर्थङ्करेभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् नि० । छयालीस गुण सहित दोष अष्टावश रहित बनूं अरहंत । गुरण अनंत सिद्धों के पाकर लूं अनर्घ पद हे भगवंत ॥ भूत० ॐ ह्रीं भूत, भविष्य, वर्त्त मान तीर्थङ्करेभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्धम् नि० । भूत भविष्यत् वर्त्तमान की चौबीसी को नमन करू । क्रोध लोभ मद माया हरकर मोह क्षोभ को शमन करूं ॥ ॐ ह्रीं भरत क्षेत्र संबंधी भूतकाल चतुविशति जिनेन्द्राय अर्धम् नि० । श्री भूतकाल चौबीसी 1 संयम । जय निर्वाण, जयति सागर, जय महासाधु, जय विमल, प्रभो । जय शुद्धाभ, देव जय श्रीधर, श्री दत्त, सिद्धाभ, विभो ॥ जयति अमल प्रभ, जय उद्धार, देव जय अग्नि देव जय शिवगण, पुष्पांजलि, जय उत्साह, जयति परमेश्वर नम ॥ जय ज्ञानेश्वर, जय विमलेश्वर, जयति यशोधर, प्रभु जय जय । जयति कृष्णमति, जयति ज्ञानमति, जयति शुद्धपति जय जय जय ।। जय श्रीभद्र, अनंतवीयं जय भूतकाल चौबीसी जय । जंबूद्वीप सुभरत क्षेत्र के जिन तीर्थङ्कर की जय जय ॥ ॐ ह्रीं भरत क्ष ेत्र संबंधी भूतकाल चतुर्विंशति जिनेन्द्राय अर्धम् नि० श्री वर्तमान काल चौबीसी ऋषभदेव, जय अजितनाथ, प्रभु संभव स्वामी, अभिनंदन । सुमतिनाथ, जय जयति पद्मप्रभ, जय सुपार्श्व, चंदा प्रभु जिन ।। पुष्पदंत, शीतल, जिन स्वामी जय श्रेयांस नाथ भगवान । वासुपूज्य, प्रभु विमल, अनंत, सु धर्मनाथ, जिन शांति महान ।।

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