Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 178
________________ १६६] जैन पूजांजलि मोक्ष मार्ग पर चले निरंतर जग में सच्चा श्रमण वही है । ज्ञानवान है ध्यानवान है निज स्वरूप अतिक्रमण नहीं है ॥ बलि से मांगी तीन पांव भू, बलिराजा हंस कर बोला । जितनी चाहो उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ॥ हंस कर मुनि ने एक पांव में ही सारी पृथ्वी नापी । पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ॥ ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा । क्षमा क्षमा कह कर बलि ने,मुनि चरणों में मस्तक रक्खा। शीतल ज्वाला हुई अग्नि को, श्री मुनियों की रक्षा की। जय जयकार धर्म का गंजा, वात्सल्य की शिक्षा दी । नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को प्राहार दिया । बलि आदिक का हुमा हृदय परिवर्तन जय जयकार किया। रक्षा सूत्र बांध कर तब जन जन ने मङ्गलचार किये। साधर्मी वात्सल्य भाव से, प्रापस में व्यवहार किये ॥ समकित के वात्सल्य अङ्ग की महिमा प्रगटी इस जग में । रक्षा-बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्म हुमा जग में ॥ श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन था रक्षा सूत्र बंधा कर में । वात्सल्य को प्रभावना का आया अवसर घर घर में ॥ प्रायश्चित ले विष्णु कुमार पुनः व्रत ले तप ग्रहण किया । अष्ट कर्म बन्धन को हर कर इस भव से हो मोक्ष लिया। सब मुनियों ने भी अपने अपने परिणामों के अनुसार । स्वर्ग मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय जयकार ।। धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूं । रहे शुद्ध प्राचरण सदा ही धर्म मार्ग अनुकूल चलूं ॥ प्रात्म ज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज पर को मैं पहिचानें। समकित के पाठों अङ्गों की, पावन महिमा को जानूं ॥

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