Book Title: Jain Pujanjali
Author(s): Rajmal Pavaiya Kavivar
Publisher: Digambar Jain Mumukshu Mandal

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Page 176
________________ १६४] जैन पूजांजलि तीवराग को दुखमय समझा, मंदराग को सुखमय जाना । पाप पुण्य दोनो बंधन हैं वीतराग का कथन न माना । चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीप ज्योति करता अर्पण । सम्यक् दर्शन का प्रकाश पा निज परणति में करू रमण ॥ श्री० ___ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो मोहान्धकार विनाशनायदीपम् निर्वपामीति स्वाहा।। अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण । सम्यक् ज्ञान हृदय प्रगटाऊँ निज परणति में करूं रमण ॥ श्री. __ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एव अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो अष्टकर्म दहनाय धूपम निर्वपामीति स्वाहा । मुक्ति प्राप्ति हित उत्तम फल चरणों में करता हूं अर्पण । मै सम्यक् चारित्र प्राप्त कर निज परगति में करूं रमण ॥श्री० ॐ ह्री श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलम् निर्वप(मीति स्वाहा। शाचत पद अनर्घ पाने को उत्तम अर्घ कर अपरण । रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परगति में कह रमण ॥ श्री अकम्पनाचार्य प्रादि मुनि सप्त शतक को करूं नमन । मुनि उपसर्ग निवारक विष्णु कुमार महा मुनि कोवन्दन ॥ ___ॐ ह्रीं श्री विष्णु कुमार एवं अकम्पनाचार्य आदि सप्त शतक मुनिभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम् नि०स्वाहा । * जयमाला वात्सल्य के अङ्ग की महिमा अपरम्पार । विष्णु कुमार मुनीन्द्र की गूंनी जय नयकार ॥ उज्जयनी नगरी के नृप श्री वर्मा के थे मन्त्री चार । बलि,प्रहलाब,नमुचि,बृहस्पति चारों अभिमानीसविकार ॥ नब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में पाया । सात शतक मुनि के दर्शन कर नूप श्री वर्मा हर्षाया ॥

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