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जैन पूजांजलि
[४६ कष्टों से भरपूर सर्वथा यह संसार असार है।
निज स्वभाव के द्वारा मिलता शिव सुख अपरंपार है । दर्शन ज्ञान चरित्र साधना से पाऊँ निज शुद्ध स्वभाव । रत्नत्रय की पूजन करके राग द्वेष का करूं प्रभाव ॥ ___ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्याय जन्म जरा मृत्यु विनाशनाय जलम् नि० । शुभ भावों का चन्दन घिस-२ निज से किया सदा अलगाव । भव ज्वाला शीतल हो जाये ऐसी प्रात्म प्रतीत जगाव ॥दर्शन __ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्म संसारताय विनाशनाय चन्दनम् नि० । भव समुद्र की भंवरों में फंस टूटो अब तक मेरी नाव । पुण्योदय से तुमसा नाविक पाया मुझको पार लगाव ॥ दर्शन० ___ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अक्षय पद प्राप्तये अक्षतम् नि० स्वाहा । काम क्रोध मद मोह लोभ से मोहित हो करता पर भाव । दृष्टि बदल जाये तो सृष्टि बदल जाये यह सुमति जगाव ॥दर्शन० ___ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय कामवाण विध्वंसनाय पुष्पम् नि० म्वाहा । पुण्य भाव को रुचि में रहता इच्छाओं का सदा कुभाव । क्षुधा रोग हरने को केवल निज की रुचि ही श्रेष्ठ उपाव ॥दर्शन०
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय क्षुधा रोग विनाशनाय नैवेद्यम् नि० । जान ज्योति बिन अन्धकार में किये अनेकों विविध विभाव । आत्म ज्ञान को दिव्य विभा से मोह तिमिर का करू अभाव ॥दर्शन
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय मोहान्धकार विनाशनाय दीपम् नि० । घाति कर्म ज्ञानावरणादिक निज स्वरूप घातक दुर्भाव । ध्र व स्वभावमय शुद्ध दृष्टि दो प्रष्ट कर्म से मुझे बचाव ॥दर्शन ___ ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय अष्ट कर्म विध्वसनाय घूपम् नि स्वाहा । निज श्रद्धान ज्ञान चारित मय निज परिणति से पा निज ठाँव । पहामोक्ष फल देने वाले धर्म वृक्ष की पाऊँ छाँव ॥ दर्शन
ॐ ह्रीं सम्यक् रत्नत्रय धर्माय मोक्षफल प्राप्तये फलम् नि० स्वाहा ।