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जन पूजांजलि
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अनतानुबंधो के क्षय बिन कैसा व्रत संयम । सम कत के विन कसे जा सकता है मिथ्यातम ।।
विषय भोग अभिलाषा तज जो प्रात्म ध्यान में रम जाते। शोल स्वभाव सजा दुर्मतिहर काम शत्रु पर जय पाते ॥ परम शोल की पवित्र महिमा ऋषि गणधर वर्णन करते । उत्तम ब्रह्मचर्य के धारी हो भव सागर से तिरते ॥ ॐ ह्रीं ब्रह्मचर्य धमां गाय नमः अर्घ्यम नि० ।
8 जयमाला 8 उत्तम क्षमा धर्म को धारूं क्रोध कषाय विनाश करूं। पर पदार्थ को इष्ट अनिष्ट न मानूं प्रात्म प्रकाश करूं। उत्तम मादव धर्म ग्रहण कर विनय स्वरूप विकास करूं। पर कर्तृत्व मानता त्यागू अहङ्कार का नाश करूं ॥ उत्तम आर्जव धर्मधार माया कषाय संहार करू । कपट भाव से रहित शुद्ध प्रातम का सदा विचार करूं॥ उतम शौच धर्म धारण कर लोभ कषाय विनष्ट करूं। शुचिमय चेतन से अशुद्ध ये चार घातिया कर्म हरू । उतम सत्य धर्म से निर्मल निज स्वरूप को सत्य करूं। हित मित प्रिय सच बोलू नित निज परिणित के सङ्ग नृत्य करूं। उतम संयम धर्म सभी जीवों के प्रति करुणा धार। समिति गुप्ति व्रत पालन करके निज प्रातम गुण विस्तारूं ॥ उतम तप धर शुक्ल ध्यान से प्राठों कर्मों को जारू। अन्तरङ्ग बहिरङ्ग तपों से निज प्रातम को उजियारू॥ उतम त्याग पांच पापों का सर्व देश में त्याग करू। योग्य पात्र को योग्य दान दे उर में सहज विराग भरू।