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जैन पूजांजलि
आत्म सूर्य को जो प्रगटाये उसे धर्म कहते है । भव बंधन में जो उलझाए उसे कर्म कहते है ।
यह चौदह मार्गणा जीव की होती है इनसे पहचान । पंचानवे भेद हैं इनके जीव सदा हैं सिद्ध समान ॥ गति हैं चार पाँच हैं इन्द्रिय छह लेश्या पच्चीस कषाय । वेद तीन सम्यकत्व भेद छह पन्द्रह योग और षट काय ॥ दो पाहार चार दर्शन हैं, संयम सात अष्ट हैं ज्ञान । दो संजोत्व और हैं दो भव्यत्व मार्गणा भेद प्रधान ॥ गुरण स्थान मार्गणा व जीव समास सभी व्यवहार कथन । निश्चय से यह नहीं चोव के इन सबसे प्रतीत चेतन ॥ मूल प्रकृतियां कर्म आठ ज्ञानावरणादिक होती हैं। उत्तर प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म की होती हैं। गुण स्थान मिथ्यात्व प्रथम में एक शतक सत्रह का बन्ध । दूजे सासादन में होता एक शतक व एक का बन्ध । मित्र तीसरे गुण स्थान में प्रकृति चौहत्तर का हो बन्ध । चौये अविरत गुण स्थान में प्रकृति सतत्तर का हो बन्ध । पंचम देश विरत में होता सड़सठ कर्म प्रकृति का बन्ध । गुण स्थान षष्ठम् प्रमत्त में त्रेसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । सप्तम् अप्रमत्त में होता उनसठ कर्म प्रकृति का बन्ध । अष्ट अपूर्व करण में हो अट्ठावन कर्म प्रकृति का बन्ध । नौं अनिवृत्तिकरण में होता है बाईस प्रकृति का बन्ध । दसर्वे सूक्ष्म साम्पराध में सतरह कर्म प्रकृति का बन्ध ॥ ग्यारवें उपशान मोह में एक प्रकृति साता का बन्ध । क्षीण मोह बारहवें में है एक प्रकृति साता का बन्ध ॥ है संयोग केवली त्रयोदश एक प्रकृति साता का बन्ध । है अयोग केवलो चतुर्दश किसी प्रकृति का कोई न बन्ध ।