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जैन पूजांजलि
भोतिक सुख की चकाचौंध में जीवन बीत रहा है ।
भावमरण प्रति समय हो रहा जीवन रीत रहा है ।। अष्टम् गुण स्थान में उपशम क्षपक श्रेणि होती प्रारम्भ । उपशय नौ,दस,ग्यारह तक है नव दस बारह क्षायक रम्य ॥ अविरत गुण स्थान चौथे में होता सात प्रकृति का क्षय। पंचम् षष्ठम् सप्तम् में होता है तीन प्रकृति का क्षय ॥ नवमें गुण स्थान में होता है छत्तीस प्रकृति का क्षय । दसवें गुण स्थान में होता केवल एक प्रकृति का क्षय ॥ क्षीण मोह बारहवे में हो सोलह कर्म प्रकृति का क्षय । इस प्रकार चौथे से बारहवे तक सठ प्रकृति विलय ॥ गुण स्थान तेरहवें में सर्वज्ञ अनंत चतुष्टयवान । जीवन मुक्त परम प्रौदारिक सकल ज्ञेय ज्ञायक भगवान ॥ चौदहवें में शेष प्रकृति पिच्चासी का होता है क्षय । प्रकृति एक सौ अड़तालीस कर्म को होती पूर्ण विलय ॥ ऊर्ध्व गमन कर देह मुक्त हो सिद्ध शिला लोकाग्र निवास। पूर्ण सिद्ध पर्याय प्रगट, होता है सादि अनंत प्रकाश ।। काल अनंत व्यर्थ ही खोये दुख अनंत अब तक छाये । द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव भव परिवर्तन पांचों पाये ॥ पर भावों में मग्न रहा तो रही विकारी ही पर्याय । निज स्वभाव का आश्रय लेता होती प्रगट शुद्ध पर्याय ॥ प्रष्ट कर्म से रहित अवस्था पाऊं परम शुद्ध हे देव । शुद्ध त्रिकाली ध्रुव स्वभाव से मैं भी सिद्ध बन स्वयमेव ॥ इसीलिये हे स्वामी मैंने प्रष्ट द्रव्य से की पूजन । तुम समान मैं भी बन जाऊं ले निज ध्रुव का अबलम्बन ॥ ॐ ह्रीं अनन्तनाथ जिनेन्द्राय गर्भ जन्म तप ज्ञान निर्वाण कल्याणक
प्राप्ताय पूर्णाऱ्याम् नि० स्वाहा ।