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जैन पूजांजलि
[४५ सकल जगत के नो पदार्थ में सारभूत है आत्मा ।
अलख अरूपी अमित तेजमय ज्ञानभूत है आत्मा ॥ ऋद्धि सिद्धि का लोभ न किंचित इसके कारण हो पाता। जो सन्तोषामृत पीता है वही आत्मा को ध्याता ॥ शौच धर्म पावन मङ्गलमय से हो जाता है निर्वाण । उत्तम शौच धर्म ही जग में करता है सबका कल्याण ॥ ॐ ह्रीं उत्तम शौच धर्मा गाय अध्यम् नि ।
उत्तम सत्य उत्तम सत्य धर्म हितकारी निज स्वभाव शीतल पावन । वचन गुप्ति के धारी मुनिवर हो पाते हैं मुक्ति सदन ॥ सब धर्मों में यह प्रधान है भव तम नाशक सूर्य समान । सुगति प्रदायक भव सागर से पार उतरने को जलयान ॥ सत्य धर्म से प्रणुवत और महावत होते है निर्दोष ॥ जय जय उत्तम सत्य धर्म त्रिभुवन में गूज रहा जयघोष ॥ ॐहीं उत्तम सत्य धर्मागाय अय॑म् नि०।
उत्तम संयम उत्तम संयम तीन लोक में दुर्लभ सहज मनुज गति में। दो क्षण को पाने की क्षमता देवों में ना सुरपति में ॥ पंचेद्रिय मन वश करना बस स्थावर की रक्षा करना । अनुकम्पा आस्तिक्य प्रशम संवेगधार मुनिपद धरना ॥ धन्य धन्य संयम की महिमा तीर्थङ्कर तक अपनाते । उत्तम संयम धर्म जयति जय हम पूजन कर हर्षात ॥ ॐ ह्रीं उत्तम संयम धर्मा गाय नमः अर्घ्यम् नि०।
उत्तम तप उत्तम तप है धर्म परम पावन स्वरूप का मनन जहाँ । यही सुतप है अष्ट कर्म की होती है निर्जरा यहाँ ।