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जैन पूजांजलि
प्रथम अनादिकाल के मिथ्या भ्रम को ध्वंस करो । पीछे तुम रागादिक भाव का गढ़ विध्वंस करो ॥
पंचेन्द्रिय का दमन सर्व इच्छात्रों का निरोध करना । सम्यक् तप धर निज स्वभाव से भाव शुभाशुभ को हरना ॥ धन्य धन्य बाह्यान्तर तप द्वादश विधि धन्य धन्य मुनिराज । उत्तम तप जो धारण करते हो जाते हैं श्री जिनराज ॥ ॐ ह्रीं उत्तम तप धमांगाय नमः अर्ध्यम् नि० ।
उत्तम त्याग
उत्तम त्याग धर्म है अनुपम पर पदार्थ का निश्चय त्याग । अभय शास्त्र प्रौषधि अहार है चारों दान सरल शुभ राग ॥ सरल भाव से प्रेमपूर्वक करते हैं जो चारों दान । एक दिवस गृह त्याग साधु हो करते हैं निज का कल्याण ॥ होदान की महिमा तीर्थङ्कर प्रभु तक लेते हैं आहार । उत्तम त्याग धर्म की जय जय जो है स्वर्ग मोक्ष दातार ॥ ॐ ह्रीं उत्तम त्याग धर्मा गाय नमः अर्ध्यम् नि० । उत्तम आकिचन
से दूर ।
उत्तम प्राकिंचन है धर्म स्वरूप ममत्व भाव चौदह अन्तरंग दश बाहर के हैं जहां परिग्रह चूर ॥ तृष्णाओं को जीता पर द्रब्यों से राग नहीं किंचित | सर्व परिग्रह त्याग मुनीश्वर विचरें वन में आत्माश्रित ॥ परम ज्ञानमय परम ध्यानमय सिद्ध स्वपद का दाता है । उत्तम प्राकिंचन व्रत जग में श्रेष्ठ धर्म विख्याता है ॥ ॐ ह्रीं उत्तम आकिंचन धर्मागाय नमः अर्घ्यम् नि० । उत्तम ब्रम्हचर्य
उत्तम ब्रह्मचर्य दुर्धर व्रत है सर्वोत्कृष्ट जग में । काम वासना नष्ट किये बिन नहीं सफलता शिवमग में ॥