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जैन पूजांजलि निज स्वरूप में थिर होना ही है सम्यक् चारित्र प्रधान । परम ज्योति आनंद पूर्णतः है सम्यक चारित्र महान ॥
मुक्ति प्राप्ति हित प्रात्म प्राचरण शक्ति भक्ति अनुरूप हो। द्वादश विधि से तपश्चरण भावना शक्ति तप रूप हो॥ इष्ट वियोग अनिष्ट योग उपसर्ग मरण या रोग हो। साधु समाधि भावना अनुपम कभी न दुखमय योग हो । रोगी मुनि की भक्तिपूर्वक सेवा सुश्रुषा करें। भव्य भावना वैयावृत्यकरण मन मंजूषा भरें ॥ मन वच काया से विजयी हो करें भक्ति अरिहन्त की। निर्मल प्रर्हद भक्ति भावना शुद्ध रूप भगवन्त की ॥ गुरु निर्ग्रन्थ चरण बन्दन पूजन नित विनय प्रणाम हो। नमस्कार आचार्य भक्ति भावना हृदय वसु याम हो । लोकालोक प्रकाशक जिन श्रुत व्याख्यान अनुरूप हो। बहु श्रु त भक्ति भावना मन में उपाध्याय मुनि रूप हो । सप्त तत्व पंचास्तिकाय छह द्रव्य आदि सत् जान लें। जिन आगम का पढ़ना प्रवचन भक्ति भावना मान लें। कार्योत्सर्ग प्रतिक्रमण समता स्वाध्याय वन्दन विमल । देव स्तुति षट कृत्य भावना आवश्यक निर्मल सरल ॥ जिन अभिषेक नृत्य गीतों वाद्यों से पूजन अर्चना । श्रुत प्रवचन मार्गप्रभावना जिनालयों की चर्चना ॥ शीलवान चारित्रवान जिन मुनियों का आदर करें। मृदुल भावना प्रवचनवत्सल मुनि चरणों में शीश धरें। इनके वाह्य आचरण ही से स्वर्ग सम्पदा झिलमिले। आभ्यन्तर आचरण किया तो मोक्ष लक्ष्मी फल मिले ॥ जितना अंश शुद्धि का होगा उतनी प्रात्म विशुद्धि रे । सतत जाग्रत हो निजात्म में मुक्ति प्राप्ति की बुद्धि रे ॥