Book Title: Jain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 25
________________ अतएव 'सबो सव्व भूस्सु' सवको अपने समान समझो, उनके साथ वैसा ही वर्ताव करो जैसा कि तुम चाहते हो वे तुम्हारे साथ करे । उन सबमें समान रूप से देवत्व या परमात्मत्व निहित है । धर्माचरण द्वारा अपना कल्याण करने का सवको समान अधिकार है। आत्मोपम्य का यह सिद्धान्त विश्वमैत्री और विश्ववन्धुत्व का प्रतिपादक तथा सार्वभौमिक शान्ति का विधायक है। अनेकान्त का सिद्धान्त, जो वस्तु तत्व विषयक वैज्ञानिक अनुभव पर आधारित है, व्यक्ति को उदार एवं सम्यक दृष्टि प्रदान करता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण धर्म होते है, उसके अनेक पहलू होते है। भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से उसका वर्णन करते हैं। सत्य की व्यक्ति या धर्म की बपौती नही है। सब की बात सहिष्णुता पूर्वक सुनो और जिस दृष्टिकोण से वह कही गई है उसे समझने का प्रयत्न करो। हमारे वडे-से-बड़े विरोधी की बात भी किसी न किसी एक दृष्टिकोण से सही हो सकती है। उदार समन्वय बुद्धि से उस बात को सुनने और उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त होने पर कारागृह, हठधर्मी पक्षपात आदि के लिये गुन्जायश नही रहती। समस्त पारस्परिक विवाद एवं झगडे समाप्त करने का यह अमोघ उपाय है। अनेकान्त विचारधारा वाला व्यक्ति जो कथन करता है वह स्याद्वाद पद्धति से करता है.-"ही" के स्थान में "भी" का प्रयोग करता है, अपनी बात ही सम्पूर्ण सत्य है और अन्य सब का मत सर्वथा असत्य है, ऐसा एकान्त दावा वह नही करता। इस प्रकार की सहिष्णुतापूर्ण उदार समन्वय बुद्धि पारस्परिक शान्ति की विधायक है। इसका प्रयोग दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में ही नही, सामाजिक, राजनैतिक, आदि लौकिक जीवन के भी प्रत्येक क्षेत्र मे सफलता पूर्वक किया जा सकता है और उसके द्वारा शान्ति का सम्पादन होगा ही। अहिंसा को तो भ० महावीर आदि निग्रन्थ तीर्थकारो ने ‘परमोधम्म'-परमधर्म कहा, उसे साक्षात परमब्रहा की पदवी प्रदान कर दी (अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमम् ) धर्म का लक्षण ही अहिंसा और जीवरक्षा बताया। जैन तीर्थकारो ने कहा कि धर्म जो स्वयं में सर्वोत्कृष्ट मंगल है वह अहिंसा रूप ही है। जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नही-धर्म हिंसा रहित ही हो सकता है। उनका कहना था कि संसार मे जितने प्राणी है सभी को सुख साता प्रिय है, दुख को सभी अपने प्रतिकूल समझते हैं, बद्ध-बन्धनादि सभी को अप्रिय है, जीवन सभी की प्रिय है, सभी जीवित बने रहना चाहते हैं, अतएव किसी भी प्राणी की मन-वचन काय तथा कृत-कादित-अनुमोदन द्वारा किसी प्रकार भी हिंसा न करो, उसे मानसिक व शारीरिक कष्ट और पीडा न पहुँचाओ। इस प्रकार हिसा न करना ही अहिंसा है। जीवरक्षा, दया, करुणा, लोक सेवा, विश्वमंत्री आदि के रूपो में अहिंसक प्रवृत्ति चरितार्थ होती है, और परिणाम उसका शान्ति है। युद्धो से युद्धो का अन्त नही होता। हिंमा के द्वारा हिंसा समाप्त नही हो सकती। हिंसा और युद्धो की समाप्ति अहिसा द्वारा ही सम्भव है । अहिंसा की ही पर्याय सत्य, अस्तेय, शील एवं अपरिग्रह है। स्थूलस्प में भी इन व्रतो का पालन करने वाले, उन्हे अपने जीवन में उतारने वाला व्यक्ति अपनी और दूसरों की सुख शान्ति का विधायक होता है। संसार में जितने झगडे टंटे, कलह विवाद युद्धादि अशान्ति के कारण है उन सबकी जड ईर्ष्या-दुष, मद-मत्सर्य, बर-विरोध, धन सम्पत्ति की लोलुपता, पर प्रभुता या सत्ता की लोलुपता अथवा विषय लोलुपता आदि ही होते हैं। किन्तु अहिंसा-सत्य औचर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह की जितने अंशों में भी व्यक्ति के, अतः समुदाय या समाज के जीवन में प्रतिष्ठा होती है, अशान्ति के उपरोक्त कारणो का निराकरण भी स्वतः होता जाता है। नित्य प्रति कालिक मामायिक के समय एक जेन यह भावना करता है कि-'प्राणी मात्र से मेरी मैत्री है, सम्पूर्ण लोक मेरा मित्र है, मेरा किसी से देर नहीं है, सब प्राणियों में परम्पर अवेर हो, वेर कही नहीं। मैं फिमी के दुःख की चाह न करूँ, कोई भी किमी का दुग्य न चाहे, सभी प्राणी सुखी रहे।

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