Book Title: Jain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 168
________________ जैन कथाओं का सास्कृतिक अध्ययन कृष्ण काकी के गले मे प्राप्त होने वाला हुआ। हे जीव | दैवयोग से यदि रा-भीतरी शरीर इस शरीर से बाहर निकल आवे तो उसके अनुभव करने की बात तो दूर रहे परन्तु यदि तू केवल कौतूहल मात्र से उसे देखने का भी उत्साह करने लगे तब कही तुझे इस शरीर मे सन्मुख होकर राग-बुद्धि करनी चाहिए अन्यथा नही । इसलिए हेय व उपादेय के विवेक से विभूषित तत्वज्ञानी पुरुष यमराज की क्रीडा करने की ओर अपनी बुद्धि को प्राप्त न करते हुए (मृत्यु होने के पूर्व) स्वाभाविक मलिन इस शरीर से कोई ऐसा अनिर्वचनीय मोक्ष फल प्राप्त करे जिससे कि अनन्त सुख रूप फल की विभूति उत्पन्न होता है। (यशस्तिलक चम्पू द्वितीय आश्वास पृष्ठ १४८) जैन-काव्य एव कथा साहित्य की चरम उपलब्धि अध्यात्मवाद की परिपुष्टि ही है । फलत रूप-सौन्दर्य की आकर्षक आसक्ति मे सलग्न मानव को प्रबुद्ध करके जैन कथाकारो ने एक ओर ससार की क्षणभगुरता को अभिव्यजित किया और दूसरी ओर शृागारिक साहित्य के नि सत्ब को भी सशक्त शब्दो मे इस प्रकार अभिव्यक्त किया कचन कुम्भन की उपमा, कहदेत उरोजन को कवि वारे । ऊपर श्याम विलोकतु वे मनि, नीलम की ढकनी लँकि छारे । - यो सत बैन कहै न कुपडित, ये जुग आमिष पिंड उघारे । साधन झार दई मुह छार, भए इह हेत किधो कुच कारे । जैनशतक ६५ मात पिता रज वीरज सो, उपजी सब सात कुधात भरी है। . माखिन के पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ धरी है । नाहिं तो आय लगे अब ही वक, बायस जीव बचे न घरी है । देह दशा यहि दीखत भ्रात, घिनात नही किन बुद्धि हरी है ।

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