Book Title: Jain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 167
________________ जैन कथा मे सौन्दर्य-बोध १४ε व्यजित मनोरमता है उसमे न उन्माद है और न भौतिक विलासिता की मदभरी रेखाये है । पशु-पक्षियो, नर्तकियो एव घटना विशेष से सम्बद्ध मानवों की भी जो प्रकृतियाँ यहा विविध रंगो मे चित्रित हुई है उनका सौन्दर्य जैन संस्कृति की विशेषता से प्रभावित है । ऐसी चित्रकला की कई कथाओ मे चर्चा हुई है । जैन चित्रकला के सम्बन्ध में चित्रकला के मान्य विद्वान श्री एन सी. मेहता ने जो उद्गार प्रकट किये है वे उस पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त होगे । वे लिखते है - जैन चित्रो मे एक प्रकार की निर्मलता, स्फूर्ति थोर गतिवेग है, जिससे डॉ० आनन्द कुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान मुग्ध हो जाते है । इन चित्रो की परम्परा श्रजता, ऐलोरा और सितन्नावारूल के भित्ति चित्रो की है । समकालीन सभ्यता के अध्ययन के लिए इन चित्रों से बहुत कुछ ज्ञान - वृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोग मे आने वाली चीजे आदि के सम्बन्ध मे अनेक बाते ज्ञात होती है । " इस प्रकार पार्थिव सौन्दर्य को विविध रूपो मे चित्रित कर इन कथाकारो ने इसकी निस्सारता को भी प्रमाणित किया तथा मानव को आध्यात्मिक सुख सौन्दर्य की प्राप्ति के लिए मोक्ष मार्ग की ओर उन्मुख बनाया । उसके लिए विशिष्ट कथाओ के अन्तर्गत बारह भावनाओ की सामान्य चर्चा की गई एवं अशुचि अनुप्रेक्षा के माध्यम से शारीरिक ममता को परित्याज्य वनाया । शुचि अनुप्रक्षा का स्वरूप इस प्रकार है— हे आत्मन् 1 इस शरीर को सुगन्धित करने के उद्देश्य से इस पर जो भी कपूर, अगुरु, चन्दन, व पुष्प वगैरह श्रत्यन्त सुन्दर व सुगन्धित वस्तु स्थापित की जाती है वही वस्तु इसके सम्वन्ध से अत्यन्त अपवित्र हो जाती है । इसलिए गौर व श्याम आदि शारीरिक वर्णों से ठगाई गई है बुद्धि जिसकी ऐसा तू विष्ठा छिद्रो के बधनरूप और स्वभाव से नष्ट होने वाले ऐसे शरीर को किस प्रयोजन से वार वार पुष्ट करता है | हे आत्मन् । जो तेरा ऐसा केश पाश, जिसकी कान्ति कामदेव रूप राजा के चमर सरीखी श्याम वर्ण थी और जो जीवित अवस्था मे कमल सरीखे कोमल करो वाली कमनीय कामिनियो द्वारा चमेली व गुलाब आदि सुचित पुप्पो के सुगन्धित तेल आदि से तेरा सन्मान करने वाले कोमल कर कमलो पूर्वक विभूषित किया जाने के फलस्वरूप शोभायमान हो रहा था, वही केश- पाश तेरे काल कलवित हो जाने पर स्मशान भूमि पर पर्वत सम्बन्धी 1. जैन धर्म - ले० प० कैलाश चंद्र जी शास्त्री पृष्ठ २७६

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