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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
एक ऐसे विशिष्ट तत्व से भी पाठक-श्रोता परिचित हो जाते हैं जो सामाजिक, धार्मिक एव राजनीतिक जीवन मे विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वेश्या के सम्बन्ध मे कहा गया है कि-"वेश्या धन का अनुभव करती है, पुरुष का नही । धनहीन पुरुष कामदेव के समान हो तो भी वेश्या उससे प्रीति नही लगाती है ।" (अर्द्धदग्ध पुरुप और बकरे की कथा-पुण्यास्रव कथाकोष, पृ० ८५) । -
इसी प्रकार गुरु की महिमा वे विषय मे एक सूक्ति कही गई है कि एक अक्षर, प्राधापद अथवा एक पद के देने वाले गुरु के उपकार को भी जो भूलता है बह पापी है, फिर धर्मोपदेश देने वाले गुरु के विषय मे तो कहना ही क्या है ? (पुण्यास्रव कथाकोष पृ० ६३)
. कया-वस्तु की सुन्दरता मे अभिवृद्धि करने के लिए अथवा कहिए परम्परागत प्राप्त कथा-प्ररूढियो की व्यापकता एव सार्थकता सिद्ध करने के लिए कहानियो मे यत्र-तत्र कथानक-रूढियो का भी प्रयोग किया गया है । इस सदर्भ मे 'जैन-कथानो मे प्ररूढियाँ' शीर्षक अध्याय दृष्टव्य है। कयात्रो की कथावस्तु को विस्तार देने के लिए तथा कथा-शिल्प को आकर्षक बनाने के हेतु कही-कही कथाकारो ने अलौकिक तत्वो को भी अधिक प्रश्रय दिया है । इस विषय मे 'जैन कथाओ मे अलौकिक तत्व' शीर्षक अध्याय अवलोकनीय है।
सामान्यत कथाओ की शिल्प प्रक्रिया साधारण ही होती है । इसमे सीधा सादा कथानक होता है और इसका प्रारम्भ ‘एक समय की बात हैअमुक नगर मे एक सेठ रहता था,' 'एक गाव मे एक माली रहता था, "जम्बूद्वीप-पूर्व विदेह, आर्य खण्ड-अवन्तो देश मे सुसीमा नामक एक नगरी है, "कु तल देश के तेरपुर नगर मे नील और महा नील नाम के दो राजा थे"मगध देश के राजगृह नगर मे एक उपश्रोणिक राजा राज्य करता था"-आदि वाक्यो से होता है । इन सामान्य कथानो मे केवल एक ही कथानक रहता है
और धार्मिक अथवा सामाजिक तथ्य को सरल रीति मे प्रतिपादित कर दिया जाता है । लेकिन कई ऐसी भी कथाएं है जिनमे प्रधान कथावस्तु के साथ कई अनेक उपकथाएँ गुम्फित रहती हैं जो प्याज के छिलको के समान अथवा कहिए केले की छिलका वली (दल) की भाति एक के बाद एक प्रस्तुत की जाती है । ऐमी कथानो की रचना-विधि सामान्य कहानियो की तुलना मे कुछ जटिल सी प्रतीत होती है ।