Book Title: Jain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 149
________________ जैन कथायो का साहित्यक सौन्दर्य राग उदै जग ग्रन्थ भयो, सहजहि सव लोगन लाज गँवाई । सीख विना नर सीखत है, विषयादिक सेवन की सुधराई । तापर और रवं रसकाव्य, कहा कहिये तिनकी निठुराई । सुन की अँखियान मे, डारत है रज रामदुहाई 1 राग उदै भोग भव लागत सुहावने से, बिना राग ऐसे लाग जैसे नाग कारे है । राग ही सीं पाग रहे तन में सदीव जीव, राग गए प्रावत गिलानी होत न्यारे हैं । राग सौ जगत रीति झूठी सब साँची जान, राग मिटं सूत प्रसार खेल सारे हैं । रागी विन रागी के विचार मे वडौई भेद, जैसे भटा पच काहू - काहू को वयारे है । १३१ -भूधरदास -भूवरदाम "हिन्दी जैन साहित्य की एक सबसे वडी विशेषता यह है कि उसमे शान्त रस की सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है । संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रन्थकारो के समान हिन्दी जैन ग्रन्थकारों का भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सासारिक विषयो के फन्दे से निकल कर अपने को पहचाने और अपने उत्थान का प्रयत्न करे । इनी लक्ष्य को नामने कर भने पनी रचनाएँ की है । हिन्दी जैन साहित्य मे ही नहीं, अपितु हिन्दी माहित्य में कविवर वनारसीदास जी की आत्मकथा तो एक पूर्व ही रचना है । उनका नाटक समयानुसार भी अध्यात्म का एक अपूर्व ग्रन्थ है ।" 1 इन पंक्तियो मे अभिव्यक्त विचारधारा जैन कथा साहित्य के उददेश्य के हो अनुरूप है । 1, जैन धर्म-ले० फैलानन्द्र जो शान्नी, पृष्ठ २५७

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