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भगवान महावीर की साधना पद्धति
-मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी "प्रथम'
भगवान महावीर राजकुमार थे। उनके लिए सभी प्रकार के सुख-साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। वे उनका अपने लिए उपयोग भी करते थे। तीस वर्ष की अवस्था तक वे भौतिक सुविधाओ मे रहे। सहसा उन्होने प्रव्रज्या का निर्णय लिया। सभी प्रकार की सुविधाओ को ठुकराकर वे कठोर चर्या के लिए निकल पडे। उनकी प्रतिज्ञा थी, मै व्युत्सृष्टकाय होकर रहूंगा अर्थात शरीर की किसी भी प्रकार से सार-सम्भाल नही करू'गा। इसमें वे पूर्णतः सफल रहे।
दुरुह साधना
महाबीर ने जिस साधना-पद्धति का अवलम्बन लिया था, वह अत्यन्त रोमांचक थी। वे अचेलक थे, तथापि शीत से त्रसित होकर वाहुओ को समेटते न थे, अपितु यथावत् हाथ फैलाये ही विहार करते थे। शिशिरऋतु में पवन और जोर से फुफकार मारता, कडकडाती सर्दी होती, तब इतर साधु उससे बचने के लिये किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापस लकडियाँ जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते, परन्तु, महावीर खुले स्थान में नंगे वदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी नही करते। वही पर स्थिर होकर ध्यान करते ।
नंगे बदन होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नही, पर, दंश-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट भी वे • झेलते थे।
महावीर अपने निवास के लिये भी निर्जन झोपडियो को चुनते, कभी धर्मशालाओ को, कभी प्रथा को, कभी हाट को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियो के घरो को, कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घरो को, कभी वृक्ष की छाया को तो कभी घास की गंजियो के समीपवर्ती स्थान को। इस स्थानो मे रहते हुए उन्हे नाना उपसगों से जूझना होता था। सर्प आदि विषेले जन्तु और गीध आदि पक्षी उन्हे काट खाते थे। उद्दण्ड मनुष्य उन्हे नाना यातनाएं देते थे, गॉव के रखवाले हथियारो से उन्हे पीटते थे और विषयातुर स्त्रियाँ उन्हे कामभोग के लिए सताती थी। मनुष्य और तिर्यचो के दारूण उपसगों और कर्कश-कठोर शब्दो के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष आये दिन प्रस्तुत होते रहते थे। मारने-पीटने पर भी वे अपनी समाधि में लीन रहते।
आहार के नियम भी महावीर के बडे कठिन थे। नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। रसो मे उन्हें आमक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थों की आकांक्षा ही रहते थे। भिक्षा मे रूखा-सूखा, ठण्डा, वासी, उडद सूखे भात, मथु, यवादि नीरस धान्य का जो भी आहार मिलता, उसे वे शान्त भाव से और सन्तोष-पूर्वक ग्रहण करते थे । एक बार निरन्तर आठ महीनो तक वे इन्ही चीजो पर रहे। पखवाडे, मास और छ:-छः मास तक जल नही पीते थे। उपवास मे भी विहार करते । ठण्डा-वासी आहार भी वे तीन-तीन, चार-चार, पाँच-पाँच दिन के अन्तर से करते थे।
शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बडी रोमाचक थी। रोग उत्पन्न होने पर भी वे औषध-सेवन नही करते थे। विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्तप्रक्षालन नही करते थे। आराम के लिये पैर नही दवाते थे।