Book Title: Jain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ श्रम समभाव का मानो पर्यायवाची शब्द है । भगवान महावीर जब गौतम को यह कहते है कि जो प्राप्त का समविभाजन का नही करता, उसकी मुक्ति नही होती, तब यह सुस्पष्ट हो जाता है कि वे कितने महान समतावादी थे और किस प्रकार साम्य को आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन का मूलाधार समझते थे। आचारांग मे स्पष्ट है कि जो तीर्थकर भूतकाल में हो गये, इस समय या भविष्य मे होगे वे सभी उपदेश देते हैं कि किसी प्राणी का न तो वध करना चाहिये ओर न उमे किसी प्रकार पीड़ित करना चाहिए। भ० महावीर की समता किसी विशेष समुदाय, समाज, देववर्ग, मानव वृन्द या दानव समूहतक ही सीमित न थी, वह छोटे से छोटे प्राणी के प्रति भी समान रूप से व्यवहृत थी । हम उनकी समदृष्टि का अनेक क्षेत्रो में स्पष्ट रूपेण अवलोकन कर सकते है । सर्व प्रथम हम आध्यात्मिक क्षेत्र को ले । सिंह चिह्नवाले वर्धमान महावीर की सिंह गर्जना थी कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । कहाँ तो वैदिक परम्परा की उस युग मे यह मान्यता कि 'स्त्री शूदौनाधीताम्' नारीव शूद्रो को पढ़ाया ही न जाय, और कहाँ महावीर का उद्घोष कि साधना द्वारा हरेक मोक्ष या मुक्ति का अधिकारी है । मोक्ष के द्वार लिङ्ग, ओर जाति के बिना प्रत्येक साधक के लिए खुले है । वे मानते थे कि कोई भो आत्मा शत प्रतिशत दुष्ट नही, आध्यात्मिक विकास के अंकुर सब मे विद्यमान है । उन्हे परिस्फुटित करने के लिए आलोक और ज्ञान रूपी वर्षा की आवश्यकता है । प्रत्येक वाल्मीकि कभी बलिया डाकू था और प्रत्येक बलिया महर्षि बाल्मीकि बन सकता है । कषायमुक्तिः किलमुक्तिखे - मुक्ति किसी विशेष धर्म या मान्यता अथवा आचार नही, आन्तरिक कषाय रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में है । नवकार मंत्र मे इसीलिए किसी व्यक्ति विशेष को चयन न कर गुणधारी पच परमेष्टी को नमस्कार किया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र कहते है कि भवचक्र के बीजांकुर राग-द्वेष जिसके नष्ट हो गए हो वह ब्रह्म हो, शिव हो, जिन हो, उसे मेरा नमस्कार । आचार्य हरिभद्र का कथन है— महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नही, कपिलादि दार्शनिको से द्व ेष नही, जिसका कथन युक्तियुक्त हो उसे माना जाय । सामाजिक क्षेत्र पर दृष्टिपात करे । महावीर ने उच्च स्वरेण घोषणा की कि मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शुद्र होता है, जन्म से कदापि नही । वाह्य वेश भूषा और जन्मजात उच्चनीच भाव पर कुठारघात करते हुए उन्होने कहा –— ओम का जाप करने से कोई ब्राह्मण नही होता, सिर मुंडा लेने से कोई साधु नही वन जाता, केवल कुशावस्त्र किसी को तपस्वी नही बनाते और नही अरण्य निवासी किसी को मुनि के सिहासन पर बिठा देता है । ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, समता से साधु, तपश्चर्या से तपस्वी और ज्ञान से मुनि होता है । संगठन कर गृहस्थ सन्यास दोनो जातियो व सम्प्रदायो के लिए था । आन्तरिक पवित्रता विहीन बाह्य स्नान ही मुक्ति का दाता हो तो उन्होने साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चार स्तम्भों पर आश्रित संघ का जीवन में नारी को समानाधिकार प्रदान किया। उनका धर्म सभी वर्णों, वे मानते थे कि दुराचारी साधु को उसका मुनिवेश रक्षित नही कर सकता । क्रियाचार की व्यर्थता वे सुरीत्या समझते थे । वे कहा करते थे कि यदि बाहरी जलचर जीव सर्व प्रथम मुक्त हो जाते । अन्य प्राणियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा हो ? आचारांग में आदेश है कि दूसरों को उसी दृष्टि से देखो जिससे निज आत्मा को देखते हो। महावीर की मान्यता थी कि दूसरे प्राणी केवल जीए, यही पर्याप्त नही, प्रद्युत हमें यह प्रयास करना है कि वे सुखपूर्वक जी सके । उनका आदेश था कि यदि हम शरीर से किसी का हित करने मे असमर्थ हो तो अन्तरात्मा में भावना-चतुष्टय का ही आराधना करे। वे चार भावनाएँ है- सभी प्राणियो से मैत्री भाव, गुणीजनो के लिए प्रमोद- हर्प का भाव, दुःखियो के प्रति करुणा भाव, विरोधियो के प्रति माध्यस्थ अथवा तटस्थ भाव । निस्सन्देह ये सभी विचार महावीर को सम-दृष्टि सिद्ध करते है । इससे भी एक पग आगे जाकर भगवान् महावीर अन्य धर्मों के प्रति भी समता पर आधारित उदार दृष्टि

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179