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एक अहिसक प्राणी परम सहिष्णु होता है । जहाँ देश धर्म की रक्षा करने को युद्ध भी कर सकता है । देश धर्म के ऊपर मर मिट सकता है किन्तु वह घृणा किसी से नही करता है । युद्ध तो अन्याय मिटाने के लिये है । जैसे रामचन्द्रजी ने अन्याय को मिटाने के लिये रावण पर विजय प्राप्त की किन्तु लंका का राज्य जीत कर भी उसके भाई विभीषण को सौप दिया। अहिसक में इसीलिये सत्वेणु में भी जीव मात्र मे मित्रता की भावना होती है। वह पाप से घृणा अवश्य करता है किन्तु पापी से भी घृणा नही करता है । क्योकि पापी जीव तो पहले ही भूला हुआ है अतः वह तो दया का ही पात्र है।
अहिंसक जीव के सत्य अचौर्या ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत नियम से होते ही हैं। अन्यथा अहिसा व्रत पल ही नही सकता। और यह नियम है कि जिस के अहिंसादि व्रत होगे उस पर सरकार की कानून की कोई भी धारा नही लगती है। अतः वह अपना जीवन सानन्द व्यतीत करता है।
अहिंसक प्राणी अपने जीवन मे सह अस्तित्व और अनाक्रमण का सिद्धान्त अपनाता है। सबके साथ मिल कर रहता है किन्तु किसी भी परद्रव्य पर आक्रमण नही करता। सबको अपने २ अस्तित्व मे रहने का अवसर देता है । उसमें सहज स्वभाव जीव मात्र में मैत्री, गुणियो पर प्रमोद भाव, दुखी जीवो पर करुणा भाव और धर्म से या अपने से विरोधी जीवी पर माध्यस्थ भाव होता है।
अहिंसक सबकी वात सुनता है किन्तु अपनी अनेकांत बुद्धि से उसका सही अर्थ लगा कर अपना प्रयोजन साधता रहता है । व्यर्थ के वादविवाद में अपने मूल्यवान जीवन को नष्ट नहीं करता है ।
कोई धर्म का मार्ग प्रेम से पूछता है तो उसे अपनी सुधा वाणी से उसके हृदय को सन्तुष्ट करता है। यदि कोई उसकी बात नही मानता है तो मध्यस्थ रहता है। वह किसी के भी विगाड सुधार का ठेकेदार नही है। अन्य जीव धर्म मार्ग पर लग कर सुखी बने, मात्र यह भावना ही कर सकता है । विगाड सुधार या सुख दुख तो जीव अपने परिणामो पर निर्भर है।
देखा जाता है कि किसी का विगाड करते हुए उसका भला हो जाता है और बुरा करते हुए भी उसका भला हो जाता है । जेन इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पडे है। ज्ञानी धर्मात्मा जीव लौकिक जीवन मे भी परम शान्त गम्भीर और सम दृष्टि होता ही है किन्तु इसके फलस्वरूप भाविरूप भी उसका उज्ज्वल होता है। उसकी हमेशा स्वाधीनता दृष्टि रहती है। वह परम स्वावलम्बी होता है । कभी भी वह परमुखा-पेक्षी नही बनता है। वह मानता है कि जब हम अपने पुरुषार्थ से मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं, तो जगत के दूसरे कार्यों में भी क्यो पराधीन वृत्ति अपनाये । अतः एक ओर जहाँ उसे समृद्धि पर रच मात्र भी अभिमान नही होता है, वहाँ वह कभी भी अपने आत्म-गोरव को विस्मृत नही करता है । दीनता और हीनता उससे कोसो दूर भाग जाती है। वह सम्पत्ति मे इतराता नही ओर विपत्ति में कभी घबराता नही । ये दोनो अवस्था उसकी अपनी वस्तु नहीं है। मात्र उसके ज्ञान के क्षेत्र हैं । अतः वह लौकिक जीवन में भी अपूर्व सुख शान्ति से रहता है ।