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त्यागवीर भगवान महावीर
-श्री अगरचन्द नाहटा
जैन धर्म के अनुसार काल अनन्त है, उत्थान एवं पतन व रूप परिवर्तन का चक्र निरन्तर चलता रहता है, परिवर्तन को प्रधानता देते हुए काल चक्र को दो भागो मे बॉट दिया गया है, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इनमे से प्रथम मे क्रमशः विकास होता है और दूसरे मे ह्रास, वर्तमान काल को अवसर्पिणी काल कहा जाता है, इसके प्रारम्भ मे मानव जीवन भोग प्रधान था। यद्यपि उस समय भोगोपभोग के साधन बहुत ही सीमित थे पर उस काल के मानव त्याग व धर्म को अपना नही सके थे, इसलिए उसे भोग भूमि का काल कहा जाता है, इसके पश्चात् यद्यपि भोगोपभोग के साधन पूर्वापेक्षा बहुत अधिक अविष्कृत प्रादुर्भत हुए पर साथ ही उनके त्याग ने वाले महापुरुष भी अनेक हुए।
प्रारम्भिक तीनो आरो मे मनुष्य का जीवन एक प्राकृतिक ढॉचे मे ढला हुआ-सा था। जन्म के समय मे एक बालक और बालिका साथ ही उत्पन्न होते थे अतः उन्हे युगलिक कहा जाता है वे प्राकृतिक प्रकृति की छाया मे वडे होते और स्त्री-पुरुष का व्यवहार ( संगम-काम भोग) करते उनके खान-पान वस्त्रादि की आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती, इसलिए उन्हे अन्य काम या श्रम करके उत्पादन करने की आवश्यकता नही रहती, जेन मान्यता के अनुसार आज भी इस विश्व में कई क्षेत्र ऐसे है जिन्हे युगलिको की भोग भूमि की संज्ञा प्राप्त है।
त्याग मार्ग के प्रथम पुरस्कर्ता : तीसरे आरे के अन्त मे भ० ऋषभदेव उत्पन्न हुए। उन्होने युग की आवश्यकता के अनुसार विवाहादि के सम्बन्धो मे परिवर्तन किया । राजनीति, विद्या, कलाका प्रवर्तन किया । कृषि, असि, मसिका व्यवहार होने के कारण तव से यह क्षेत्र 'कम-भूमि' कहलाने लगा। प्राकृतिक साधनो वृक्षो के फल की कमी और आवश्यकताओ की वृद्धि द्वारा जो लोक-जीवन में असंगति एवं असुविधा उत्पन्न हो गई थी, उसका समाधान भगवान ऋषभदेव ने किया, अतः वे सर्वप्रथम 'राजा' व लोक-नेता कहलाये। गृहस्थी भोगी जीवन के अनन्तर उन्होने त्यागमय जीवन को अपनाया और सर्वप्रथम त्याग का आदर्श उपस्थित कर जनता को उसकी ओर आकर्षित किया। त्याग धर्म के प्रति आस्था रखने वाले श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी इन चतुर्विध तीर्थ-संघ के स्थापक होने से वे प्रथम तीर्थ कर कहलाये। उनकी भव्य एवम् उदात् परम्परा मे अन्य २२ तीर्थ करो के हो जाने के बाद २४वें तीर्थकर भ० महावीर हए। उनके पश्चात अन्य कोई तीथें कर इस अवसर्पिणीकाल मे इस भरत क्षेत्र मे नही होने के कारण वे चरम तीर्थङ्कर कहलाते है।
भगवान महावीर का मूल याने जन्म नाम वद्ध मान था, पर उनकी अद्भुत धीरता की ख्याति उतनी अधिक बढ़ी की वर्तमान नाम केवल शास्त्रो मे ही सीमित रह गया, प्रसिद्धि 'महावीर' नाम को ही मिली भार तीय संस्कृति मे वीर शब्द केवल रणवीर के लिये ही प्रयुक्त नहीं होता, अपितु दान एवं त्यागादि धर्मों में प्रकर्षता करने वाले भी दानवीर से सम्बोधित किये जाते है । महावीर का तप भी महान था, अतः उन्हें तपवीर भी कहा जा सकता है। दीक्षा के पूर्व १ वर्ष तक निरन्तर दान देते रहने से 'दानवीर' तो थे ही, पर दान एवं तप दोनो का