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महावीर का धर्म - विश्व शान्ति का साधक
(डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ )
यह एक तथ्य है कि आज विश्व अशान्त है, प्रत्येक व्यक्ति अशान्त है । अनेक प्रबुद्ध विचारक एवं राजनीतिक शान्ति स्थापना के लिये सतत प्रयत्नशील है, किन्तु शान्ति की सम्भावना उत्तरोतः दूर होती प्रतीत होती है । स्वर्गीय राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी आधुनिक युगमें शान्तिके अग्रदूत थे । उनका समस्त जीवन शान्ति के लिये प्रयत्न करते ही बीता और उसीके लिये उनका बलिदान भी हुआ । उनके जीवन मे दो-दो विश्वयुद्ध हुये । उक्त युद्धो मे भी उनकी भूमिका एक शान्तिदूत की ही रही। कुछ विद्वानो का कहना है कि वह ईसाई धर्म से प्रभावित थे, कोई कहता है कि वह रूसी मनिषी टालस्टाय से अथवा अंग्रेज चिन्तक रस्किन के विचारो से प्रभावित थे । भगवद्गीता के भी वह परम भक्त थे । यो उनके प्रारम्भिक जीवन में जिस विचारधारा ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया था वह जेन थी । जैन सन्त श्रीमद् राजचन्द्र भाई को गाँधीजी अपना गुरु मानते थे और उनके सम्पर्क से ही अध्यात्मिकता, अहिसा एव सत्य में बापू की आस्था दृढ़ हुई थी । धर्म की दृष्टि से सम्प्रदाय विशेष का ही नाम लिया जाय तो गाँधीजी परम वैष्णव हिन्दू थे, किन्तु सभी धर्मों के प्रति उनका समभाव था। सभी धर्मों को आदर की से देखते थे और स्थायी शान्ति के लिये इस सर्वधर्मसमभाव को वह आवश्यक भी समझते थे ।
इस प्रसङ्ग में यह कहना अत्युक्तिपूर्ण नही है कि जैनधर्म सर्वाधिक शान्तिपूर्ण धर्म परम्परा है। प्राचीन भारत में एक के बाद एक, चौबीस श्रमण तीर्थङ्कर हो गये हैं। इनमें एक दूसरे के मध्य पर्याप्त अन्तराल रहे है | आदिनाथ ऋषभदेव इस परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे और वर्तमान महावीर अन्तिम । इन्ही तीर्थङ्कर महावीर का निर्वाण ईसा के जन्म से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ था । अगले वर्प, देश-विदेश मे उनका २५०० वॉ निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा है । इन श्रमण तीर्थङ्करो द्वारा पुरस्कृत, प्रतिपादित, स्वयं आचरित तथा जन-जन में पदातिक विहार करके प्रचारित धर्म ही जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध है । महावीर आदि निग्रन्थ धर्म का प्रचार - 'सर्व सत्वानां हिताय, सर्व सत्वानां सुखाय' किया था । समुदाय के लिये नही वरन् मनुष्य मात्र के —— प्राणीमात्र के हितसुख्य के लिये समभाव से किया था ।
तीर्थङ्करो ने इस अहिंसा प्रधान
किसी एक जाति, वर्ण, वर्ग या
इस धर्म के मूलाधार तीन कहे जा सकते हैं—-आत्मोपम्य, अनेकान्त और अहिंसा, और तीनो का ही लक्ष्य शान्ति प्रदान करना है, सर्वत्र शान्ति की स्थापना करना है— व्यक्ति को, परिवार को, समाज को, देश और राष्ट्र को सम्पूर्ण विश्व को शान्ति प्राप्त हो, कही भी किसी प्रकार की अशान्ति न रहे ।
आत्मोपम्य का सिद्धान्त बताता है कि संसार में जितने भी देहधारी प्राणी है, छोटे-से-छोटे जीव-जन्तु पशु-पक्षियो से लेकर मनुष्य पर्यन्त, सभी आत्म तत्व विशिष्ट है । आत्माओ की अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है, और ये समस्त आत्माये अपने स्वभाव, क्षमताओ गुण धर्मों से समान हैं । दुःख-सुख की जैसी अनुभूति हमें होती है वैसी ही अन्य सब प्राणियो को होती है । प्राणी प्राणी में, व्यक्ति, व्यक्ति मे कोई भेद नहीं है, और न ही होना चाहिये ।