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जैन जगतो SOORAG000
ॐ अतीत खएड 8
अंगार सिर पर धर दिये, था मोह प्राणों का नहीं, थे प्राण तक भी दे दिये, यव-भेद पर खोला नहीं । जलधार में फेंके गये४५, हा! हा! त्वचाकर्षण हुआ""; उपसर्ग ऐसे हो सह वह कौन जग में है हुआ ! ॥ ६४ ।। हम क्या सुदर्शन' श्रेष्ठि-सुतकी शील-सीमा कह सके ! उस शूल के मधु पुष्प क्या होये बिना थे रह सके ! वे पुंश्चली-प्रासाद में चौमास भर भी रह गये५२, हैं कौन ऐसे जो कि यों पड़ कर अनल में बच गये! ।। ६५ ।। हम क्या कहें ? जग कह रहा, थे देव भी हम-से नहीं; इस शील दुर्गम वत्म में सुर खा गय ठोकर कहीं। परमेष्ठि-मंगल-मंत्र५३ को नर कौन नहिं है जानता ? अरिहंत, अर्हत्, वीतभव जग पूर्वजों को मानता ॥ ६६ ॥ उपसर्ग इनके आज तक कोई नहीं है गिन सका; कहकर अनंतातिशय बस अवकाश कविवर पा सका। अरिहंत थे, ये सिद्ध थे, आचार्य थे ये धर्म के व महा महोपाध्याय थे, मुनिवर्य थे मन-मर्म के ॥ ६७ ।। हम गर्व जितना भी करें, उतना ही इन पर योग्य है; हम ही नहीं हैं कह रहे, सब कह रहे जन विज्ञ हैं। ये मन, वचन अरु कर्म से हर भाँति पावन हो गये, मन के धनी, मनदेव सच्चे ये अनन्वय हो गये ॥ ६८ ॥