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*जैन जगतो
* अतीत खण्ड
जब के गिरे ऐसे गिरे, संज्ञा न आई आज भी; है कौन भाई, कौन रिपु, नहिं दीखता हमको अभी । स्वाधीन से आधीन हो, सब भाँति विषयालीन हैं; बलहीन हैं, मतिहीन हैं, सब भाँति अब तो दीन हैं ।। ३४४ ॥
पयपूर्ण था, मयपद्म था, था भृंग मधुकर देश जो; अब देख लो सूखा पड़ा है, पङ्क भी हो शेष जो । चीरे करारी पड़ गईं, हर ठौर गहर हो गये; क्या वेदना के प्रारण इसमें हाय ! स्तर स्तर सो गये || ३४५ ॥
यह हो गई कब से दशा, हम जानते कुछ भी नहीं; जो आरहा मुँह में हमारे बक रहे हैं हम वही । निष्भूप हो, उद्दाम हो द्विज-कुल हमारे गिर गये; सब पुंश्चली स्त्री हो गईं, हा ! नर नपुंसक हो गये ॥ ३४६॥
ज्यों कायरों में नर-नपुंसक भंग करते शान्ति हैं; होती यथा निस्तब्ध निशि में उल्लुओं की क्रान्ति है । पशु-यज्ञ के उपदेश त्यों थे द्विज सभी करने लगे; जहाँ बह रही थी घृत- सरि, थे रक्त-नद झरने लगे ॥ ३४७ ॥
निर्भर, नदी के कूल पर सर्वत्र होते होम थे; गौश्व का करते हवन द्विज-भ्रष्ट पापी - डोम थे । यदि उस समय में वीर विभु का जन्म जो होता नहीं; उस आज डोमाचार का कुछ पार भी रहता नहीं ॥ ३४८ ॥
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