Book Title: Jain Jagti
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Shanti Gruh Dhamaniya

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Page 248
________________ जेन जगती Pecoccer परिशिष्ट . कि वेदों की रचना भगवान् श्रादिनाथ के समय उनके गणधरों ने की थी। १६१-जैन-दर्शन-जैन-दर्शन की महत्ता आज समस्त संसार स्वीकार करता है। सर्व श्री बालगंगाधर, गोखले, महामना मालवीयजी, तुकारामकृष्ण शर्मा आदि के विचार हम पूर्व दे चुके हैं। १७०-जैन-साहित्य में यह हजारों वर्षों पूर्व ही बता दिया गया था कि वनस्पतिकाय में जीव होता है। लेकिन आज तक संसार हमारे इस सिद्धान्त का उपहास करता आया है। लेकिन अब-अब विज्ञान-विद् कहने लगे हैं कि वृक्ष-लताओं में जीव होता है। उसे भी मनुष्य अथवा पशु-पक्षी कृमि के जीव के अनुसार दुःख, सुख का अनुभव होता है। अभी कुछ वर्ष पूर्व हमारे प्रसिद्ध विज्ञानज्ञ जगदीशचन्द्र बोस ने ही सर्व प्रथम यह सिद्ध कर संसार को चकित कर दिया था कि वृक्ष हँसता, खेलता एवं रोता है । इस विषय में वे अधिक शोध करते लेकिन दुःख है अब उनका देहावसान हो चुका है। १७१-अंग-प्रापार (आचार), सूयगड़ (सूत्रकृत), थाण (स्थान) इत्यादि कुल १२ अंग हैं जिनमें दृष्टिवाद अंग पूर्व के साथ ही विलुप्त हो गया है ऐसा माना जाता है । थोड़े में अंगों का विषय यहाँ स्पष्ट नहीं किया जा सकता। १७२-उपांग-ओववाइप (औपपातिक), रायपसेनइज्जि (राजप्रश्नीय ), जीवाभिगम आदि उपांग भी १२ है । उपांगों का अंगों के साथ अवश्य कुछ सम्बन्ध है।

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