Book Title: Jain Jagti
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Shanti Gruh Dhamaniya

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Page 252
________________ *जैन जगती * परिशिष्ट I भाषा आदि - प्राकृत है । कवि सम्राट पं० अयोध्यासिंह 'हरिऔध' की भी ऐसी ही धारणा है। देखो 'हिन्दी-भाषा और साहित्य का विकास' द्वि० प्रकरण | २०१ - अनेकार्थ-कोष - यह कोष प्रसिद्ध वैयाकरण आचार्य हेमचन्द्रकृत है। इसके अन्तराल का परिचय इसके नाम से ही पा लीजिये । २०२ - अभिवान राजेन्द्र-कोष - यह कोष सात भागों में समाप्त हुआ है। जिनकी कीमत २३६) रुपया है । यह प्रसिद्ध विद्वान् राजेन्द्र सूरिकृत है जो अभी २० वीं शती में ही हो गये है । २०३ - काव्यानुशासन - यह महाकवि वाग्भट्टकृत अलंकार का ग्रंथ है। C २०४ - नाट्यदर्पणवृत्ति - यह छंदोऽलंकार का प्रन्थ है । २०५ - परिशिष्ट पर्व - यह प्रसिद्ध महाकाव्य है । २०६-७-८ – श्री जैन - ज्योतिष, भुवन दीपक, ज्योतिष-करंडकये तीनों ग्रंथ ज्योतिष-साहित्य में प्रथम श्रेणी के हैं । २०६-१०-११ – विद्यारत्न महानिधि, अद्भुत सिद्धिविज्ञायंत्र, और आकाशगामिनीविद्या - ये तीनों मन्त्र-प्रन्थ हैं । २१२ - माण्डवगढ़ - यह नगर अति प्राचीन है और मालवा में आया है। इसके अनेक नाम हैं- मण्डपाचल, मण्डपदुर्ग, श्रीमण्डप, मण्डगिरि आदि । वत्र्तमान में यह मांडू के नाम से प्रसिद्ध है । मुसलमान शासकों के समय में यह नगर बड़ा श्रभिराम था । इसमें तीन लाख तो मात्र जैनियों के ही घर थे ! २३॥

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