Book Title: Jain Jagti
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Shanti Gruh Dhamaniya

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Page 272
________________ * जैन जगती * * परिशिष्ट आक्रमण करने का निमंत्रण दिया था । इसी पापी के काले काम के कारण आज हिन्दुस्तान के दो बड़े खण्ड हो रहे हैं । ३२५-३२६--- दिगबर-दिक + अंबर, दिशा ही जिनका वस्त्र है उन्हें दिगंबर कहते हैं । श्वेताम्बर - श्वेतवस्त्र पहिनने वालों को श्वेताम्बर कहते हैं । किसी समय जैनधर्म अखण्ड था । दुर्भाग्य से इसके ये उक्त दो खण्ड हो गये । कब हुए ? यह प्रश्न विवादास्पद है । इस प्रश्न को छूने का यहाँ मेरा न विचार है और न इसको मैं यहाँ हल करना उचित समझता हूँ । ३२७-३६८–समय पाकर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भी फिर दो दल हो गये । स्थानकवासी जो मूर्ति को नहीं मानते हैं और दूसरे मूर्तिपूजक जो मूर्ति की पूजा-प्रतिष्ठा करते हैं। स्थानक - वासी सम्प्रदाय को बावीसपंथी एवं ढूंढ़क भी कहते हैं । इस सम्प्रदाय की आदि करने वाले श्रीमान् लोकाशाह कहे जाते हैं । आगे जाकर शनैः शनैः मूर्तिपूजक सम्प्रदाय में भी आचार्यों के नामक पीछे अलग अलग दल स्थापित होते गये और ये दल आज ८४ की संख्या तक पहुँच गये, जो गच्छ कहलाते हैं । लोकशाह के कितने ही जीवन-चरित्र छप चुके हैं। विशेष के लिये उनमें से कोई देखें । ३२६ -- तेरह पंथी - यह स्थानकवासी सम्प्रदाय में से निकला हुआ एक और पंथ है । इसकी आदि करने वाले भिखमजी कहे जाते हैं । भिमजी स्थानकवासी साधु रघुनाथमलजी के शिष्य थे| देखो भिखम-चरित्र | २५१

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