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जैन जगती HONGER RESISE
वर्तमान खण्ड ®
पड़ कर समय के फेर में ये वर्ण पैत्रिक धन हुये ; तब वर्ण वर्णान्तर हुये, ये जाति जात्यन्तर हुये । इस भाँति से वर वर्ण के लाखों विभाजन हो गये ! जितने पिता हम में हुये उपगोत्र उतने हो गये ! ।। २६५ ।। हर एक मन के नाम पर हैं; जाति-इल कितने हुये ? अब एक नरके देखिये उपगोत्र कुल इतने हुये । वह आर्य, हिन्दू, जैन हैं, श्वेताम्बरी, श्रीमाल हैं; गच्छानुगत, वंशानुगत, गोत्रानुगत के जाल हैं ।। २६६ ।। कुल जैन तेरह लक्ष होंगे, अधिक होने के नहीं ; दस वीस सहन गोत्र होंगे-अल्प होने के नहीं । इस अल्प संख्यक जाति का ऐसा भयावह हाल है । हा! एक वह भी काल था अम एक यह भी काल है !!२६७।।
जात्यन्तरिक फिर रोग बढ़कर साम्प्रदायिक बन गये; पारस्परिक व्यवहार, प्रेमाचार तक भी रुक गये । इन दिग्पटों ताम्बरों में अब नहीं होते प्रणय; संकीर्ण दिन दिन हो रहे क्या शून्य में होने विलय ? ॥२६॥
कितने असर हम पर भयंकर आज इनके घट रहे होकर सहोदर हाय ! सब हम रण परस्पर कर रहे ! अब वह न हममें प्रेम है, सौहार्द है, वात्सल्य है; अब प्राणनाशक फूट का चहुँ ओर हा ! प्राबल्य है !! ॥२६६।।