Book Title: Jain Jagti
Author(s): Daulatsinh Lodha
Publisher: Shanti Gruh Dhamaniya

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Page 211
________________ जैन जगती . ® वियन 8 हम भूत गौरव खो चुके, अपना चुके खलपूपना ! गण्डकपते ! दुर्दैव से रक्षा हमारी कीजिये। सब भाँति भारत दीन है, इससा न दूजा हीन है ! हे महिष-ध्वज ! इस दैन्यता का अपहरण कर लीजिये। करते न कर अब काम हैं, तन में न अब कुछ राम हैं ! हे घृष्टि-ध्वज ! कुछ भूल कर चितवन इधर भी कीजिये । संतप्त हैं, हम प्लुष्ट है, अवरीण हैं, हम रुग्ण हैं; हे श्येन-ध्वज ! इस दुख-विहग को ग्लस्त अब कर लीजिये। सर्वत्र हिंसावाद है, रसवाद है, रतिवाद है। इस प्रेत पामर मे हमे बन-ध्वज छुड़वाइये । हम थे दिवौकस एक दिन, हम प्रेत अब हैं हो गये ! करके दया मृग-ध्वज ! हमें अब तन पलट करवाइये ।। न्यग्रोध-सी दुर्भेद की शाखा प्रसारित हो रही ! हे मेष-ध्वज ! दुर्भेद-वट उन्मूल कर बतलाइये। हम लुब्ध हैं, सोन्माद हैं अरु हैं समुद्धत भी तथा ! भगवान नंदावर्त-केतो ! धर्म-पथ दिखलाइये ॥ भ्रातृत्व हम में है नहीं, हम द्वेष-मत्सर-प्राण हैं ! सम्यक्त्व भारत वर्ष में फिर कुम्भ-ध्वज ! प्रगटाइये। वह त्याग हम में है नहीं, वह ब्रह्म-व्रत हममें नहीं! कच्छप-पते ! वह ब्रह्मव्रत फिर से हमें सिखलाइये ॥ सौहार्द हम में है नहीं, सब स्वार्थ का ही राग है ! हे नील सरसिज-ध्वज ! हमें मानवपना दिखलाइये। ११०

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