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जैन जगती,
७ वर्तमान खण्ड छ हे नाथ ! पंकिल यों रहेंगे भक्त होकर आपके ? सब कुछ हमारे पाप हैं, हे नाथ ! हम हैं आपके । क्या नाथ ! दुर्दिन देश के शुभतर न हो अब पायँगे? तो नाथ ! अब तुम ही कहो,जीने अधिक हम पायँगे ?||३१शा हे नाथ ! भारत होन है ! संतान इसकी दीन हैं ! बल हीन हैं, मति हीन हैं ! हा! घोर विषयालीन हैं ! सद्बुद्धि देकर नाथ ! अब हमको सजग कर दीजिये; यह सन्तमस विपदावरण का नाथ ! अब हर लीजिये ।।३१६।।
होकर पिता क्या सुध तुम्हें लेनी नहीं है पुत्र की ? अपयश तुम्हारा क्या नहीं, अपकीर्ति हो जब गोत्र की? हम हैं सनातन भक्त तेरे, आज भी हम भक्त हैं; सब भाँति विषयासक्त होकर भी तुम्हीं में रक्त हैं ॥३१७॥
जब जब बढ़ा अतिचार जग में, जन्म तुम धरते रहे। निज भक्तजन के दौख्य को तुम हो सदा हरते रहे। अब नाथ ! वन कर वीर जग में जन्म धारण कीजिये; पुष्पित हुये इस दैन्य-वन को भस्म अब कर दीजिये ॥३१८।।
परतंत्र भारतवर्ष को स्वाधीन अब कर जाइये; हम भक्त होकर आपके किसको भजें बतलाइये ? बढ़ता हुआ गौबध तुम्हें कैसे विभो ! सहनीय है ! दयहीन दयनिधि ! हो रहे क्यों,जब कि हम दयनीय हैं ?||३१॥