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जैन जगती * अतीत खण्ड 8
PRECTRESE जब व्यञ्जनों को छोड़ कर उपवास हम थे कर रहे थे अन्य जनपद उस समय भी मांस-भक्षण कर रहे। तप, दान, विद्या, ज्ञान, गुण हमने सिखाये हैं उन्हें; पशु से बदल कर सभ्य नर हमने बनाये हैं उन्हे ॥ ११४ ॥
हम दूसरो का देख कर दुख शान्त रहते थे नहीं; दुख मूल से हम काट कर विश्राम लेते थे कहीं। उनके दुखों को दुग्न भला हम क्यों न अपना मान ते 'आत्मस्य आत्मा बन्धु है' जब थे भला हम जानते ।। ११५ ।।
सब भाँति से हम थे समुन्नत, गर्व पर कुछ था नहीं; छोटे-बड़े के भेद का दुर्भाव मन में था नहीं। अघ-पंक में लिपटे हुये को थे उठात गोद में; सर्वस्व हम देते रहे थे दीन को आमोद में ॥ ११६ ।।
हम शोल-सरवर-मीन थे, तप-दान-संयम-प्राण थे; सद्भाव-शतदल-भृङ्ग थे, त्रय लोक के हम प्राण थे। उपकार, धर्मोद्धार में हमको न आलस था कहीं; बस, ध्येय दलितोद्धार के अतिरिक्त दूजा था नहीं ॥ ११७ ।। सिद्धान्त-रचना है दयामय शील-समता से भरी; हमने जिसे आचार में, व्यवहार में व्यवहृत करी। प्रतिकूल यदि कुछ होगया था-कौन किसको दण्ड दें; भभियुक्त अपने आपको अपराध का खुद दण्ड दें ॥ ११ ॥