Book Title: Jain Hitechhu 1911 Book 13
Author(s): Vadilal Motilal Shah
Publisher: Vadilal Motilal Shah
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साहबके दरबारम, साचेको शिरपाव; झूठ तमाचा खायगा, क्या रंक क्या राय ! साइयां के दरबारमें, कमी कछु है नाही; चंदा मोझ न पावहि, तो चूक चाकरी मांही. साहबके दरबारमें, क्युं कर पावे दाद ? पहले कृत्य बुरा करे, फिर करे फर्याद !
(२) परमात्मानो न्याय एवो छे के, साचाने ( दुनीआ जेनी किमत न समजी शके एवं विचित्र प्रकारचें) इनाम मळे छे; अने जूठाने तमाचा मळे छ, पछी भलेने ते सखस राजा होय के रंक होय ! कर्मनो अचळ कानुन गुप्त रीते काम काज करेछे; ज्यहारे माणसने दुःख पडेछे त्यहारेज ते कानुननी हयातीतुं स्मरण थाय छे.
(३) परमात्माने लहां कोइ जातनी कमीना नथी; मतलब के विश्वमां कोइ जातनां सुखोनो टोटो नथी, के जेथी रहने ते आपतां
आंचको खाय. सवाल मात्र एटलो ज छे के, हारी 'चाकरी' मां 'चूक' अथवा कचास छे तेथी 'मोझ' मळती नथी,-मुख अने तुं ए बे बच्चे ' अंतराय --पडदो आवी रहे छे. छती शक्तिए जेओ दान नथी करता तेओने सुखनी अंतराय पडे छ, एम जैन शास्त्र पण पोकारी पोकारीने कहे छे. छतां चाकरी-जगसेवा सूझती नथी अने 'मोझ' एटले मुखनां साधन इच्छे छे एवो मूर्ख आ जीव छे ! पण जाणतो नथी के आ विश्व ए हरिन अंग छे विश्वनी सेवा करशो ते हरिनी ज सेवा छे (काइ बाह्य क्रिया--पूजा ए सेवा नथी) माटे हरि पासेथी मुख लेवू. होय नो हरिना अंगरुप विश्वना जीवोने साता पमाडवा बनतुं कर.
(४) हे मूर्व ! न्हने सुरव नथी मळ्यु ए माटे तुं परमात्माने

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