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जप तप तारथ सब करे, घडी न छोडे ध्यान कहे कवीर भक्ति बिना, कबू न होय कल्याण. १२
( १२) केटलाक पंडीतो शास्त्रनु रहस्य न समजवाथी जपनप-तीर्थ अने ध्यान एटलां वानां करवामां आखी जींदगी गुजारे थे; पण कबीरजी कहे छे के 'भक्ति' विना एमनुं कल्याण-मोक्ष थाय ज नहि. जप-तप ए 'हठयोग' छे; एथी भले अमुक सिद्धिओ प्राप्त थाय, थी कांइ भवभ्रमण अटके नहि. तीर्थपूजन कराय ले ते पण बाह्यभाव छे, अने बाह्यभाव बंध थइने आंतरदृष्टि न थाय त्यहां सुधी पण भवभ्रमण अटके नहि. 'ध्यान' उत्तम चीज छे पण जेने बाह्यभाव भरपुर ले वा माणसवें 'ध्यान' पण बाह्य प्राप्तिने अर्थे ज होय , यी रहे, फळ पुद्गलसमुहनी प्राप्ति एज मळे, भवभ्रमण र महि. कल्याण तो यहारे थाय के ज्यहारे भक्ति अथवा Devotion थाय; भक्तिवाळो मनुष्य पोताना तन-मन अने धन व ईश्वरने अपीत करे के पोतार्नु कशुं नथी, मात्र विश्वसेवा माटे सांपायला हथीआगे छे भने ते स्थीआगे विश्वसेवामांज वपरावानां छे एको ख्याल भक्तने र रग होय हे, एवा माणसो माटे ज मुक्ति छे, बीजाने माटे नहि. ( भक्ति ए शब्दथी कबीरजी कोइ जातनी क्रिया सूचवका ३च्छता नथी, तेमज एक खूणे बेसी रही मात्र लावालाना शब्दोच्चार करवा एने पण 'भक्ति' नाम आपता नयी. वर्तनमा भक्ति अथवा भक्तिमय जीवन ए ज एमत्रो कहेवानो आशय छे. एमने 'साकर' नामथी संबंध नथी, साकर जेवो ज देखातो पथ्थरनो टुकडो के जेने 'सद्भाव के 'असद्भाव' स्थापनानो सिद्धान लगाडीने मुर्तिपूजको सकर मानी ले ए पण एने पसंद नथी, ए लो म्हो गए करे एवी सक चीजनु-खुद चीजर्नु काम छे. कबीरजी 'कमर मी जे; अने एमनां कर्तव्य कर्मनी इंटो बच्चे गारो 'भक्तिरस'नो छे.