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जिनगुणहीरपुष्पमाला
(१०) ऋषभ जिन सुन लियो भगवान अरज तुम से गुजारू हुँ : लगाकर कर्म ने घेरो, योनि लख वेद वसु फेरो जन्म मरणो की धारामें, हा! हा! क्या कष्ट धारू हुँ १ श्वासोश्वास एकमे जिनजी, सतर मरणों जनम लिया; गति निगोद विकारोमे, अनंतो काल हारुं हुं। ऋ० २ नरक दुःख वेदना भारी, निकलने की नहीं बारी; शरण मुहां हे न किसीका, प्रभु ए सच पुकारुं हुं । क्र.३ गति तिर्यचनी पामी, जहां नही दुःखकी खामी; चबी दुःखसे चक्कर आवे, नही आंखोसे भालु हुँ । ऋ०४ मुझे ऐसा करो उपकृत, होउं मे जिससे निर्मल हृतः अठ्ठावीस लब्धि पाइ, मोक्ष लक्ष्मी निहालुं हु। रु. ५
(गजल.) मिला भगवन तेरा चरणा, मुझे फिर और क्या करना. टेर जिसे दाता मिले तुमसा, उसे भिक्षाका क्या करना। १ जो गंगा तटपे है पहुचा, उसे जल ओर क्या करना। २ मिले दौलत मुकतपुरकी, उसे धन और क्या करना। ३ चिन्तामणि रत्न गर पाया, जवाहर ओर क्या करना। ४
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