Book Title: Jain Dharma me Ahimsa Author(s): Basistha Narayan Sinha Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi View full book textPage 8
________________ प्रकाशकीय जैन धर्म एवं दर्शन में अहिंसा का प्रमुख स्थान है। जैन धर्म-दर्शन का अनीश्वरवादी अध्यात्मवाद इसी तत्त्व से निर्मित है, जो प्राणी मात्र के प्रति मैत्री भावना रखने के सिद्धान्त का प्रतिपादक है। महावीर ने कहा है तथिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो॥ सभी जीवों के प्रति संयम और अनुशासन की तथा पारस्परिक संबंध में समता की भावना रखना ही निपुण तेजस्वी अहिंसा है। यह परम सुख और चिदानंद देने में समर्थ है। यद्यपि इस नैतिक सिद्धान्त-मा हिंस्यात् सर्वभूतानि ( किसी भी जीव को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिए ) को ब्राह्मण और बौद्ध परंपराओं ने भी स्वीकार किया है परन्तु जैन धर्म में इसका सार्वत्रिक प्रयोग विहित है। श्रमण और श्रावक दोनों का संपूर्ण जीवन उनकी आध्यात्मिक स्थिति के अनुसार पूर्णतः या आंशिक रूप से इसी आचार-सिद्धान्त से नियंत्रित होता है। वस्तुत. जैन धर्म से संबंधित प्रत्येक नियम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इसी सिद्धान्त पर आधारित है। . अहिंसा विश्व का शाश्वत सिद्धान्त है । यह हमेशा जीव की हिंसा का विरोध करता रहा है, चाहे वह एक मानव की हो, किसी वर्ग की या राष्ट्र की हो अथवा अन्य किसी की। तमाम असफ. लताओं और उपहासों के बावजूद भी यह क्रोध, मान, कपट, लोलुपता, स्वार्थपरता और ऐसे ही अन्य दूषित भावों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करता रहा है। सदियों से जैन अपनी श्रद्धा एवं आचरण के लिए यातनाएं सहता रहा, लेकिन उसने किसी ईश्वर के सामने अपनी रक्षा की भीख नहीं मांगी और न अपने तथाकथित शत्रुओं से बदला लेने की भावना ही रखी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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