Book Title: Jain Dharm Prakash 1947 Pustak 063 Ank 02 03 Author(s): Jain Dharm Prasarak Sabha Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha View full book textPage 6
________________ पाय - मंगल की कामना। करे सब कामना' येही, हमारा हो सदा मंगल । न चाहते स्वप्नमें प्राणी, अनिष्टकारी वो अमंगल ॥१॥ करे आशा सदा मनमें, सुखी कैसे बनें जगमें ? । न जीवन में कभी दुःख हो, सदा होता रहे मंगल ॥२॥ मीले धनधाम और वैभव, त्रिया सुत मनमुताबिक ही। कमी नहीं होय वस्तु की, न करना फिर पड़े दंगल ॥३॥ अखिल जगकी यही ख्वाहिश, हुवे परिपूर्ण कैसे ही। जो मंगल ही सदा चाहते, रहा है वह कहां मंगल ॥४॥ लगा सुवास की आशा, दुःखी होता सदा मनमें । हिरन कस्तुरीया देखो, भटकता फिरता है जंगल ॥५॥ रही कस्तुरी नाभि में, मगर ढुंढे जंगल में । समझता है नहीं मनमें, यही अशान अमंगल ॥६॥ बताये चार पुरुषारथ, धरम, अर्थ, काम व मोक्ष । भूलाकर धर्म को चाहे, कहो कैसे हुवे मंगल ? ॥७॥ अर्थ और काम पुरुषारथ, लगे सब साधने जगमें । प्रथम पुरुषार्थ के बिन यह, मचाते है सदा दंगल ॥ ८ ॥ इसी के वास्ते पहिले, धरम पुरुषार्थ ही साधो । यही चिन्तामणी जगमें, कहाता है यही मंगल ॥९॥ प्रथम समभाव धारणकर, समझना तीन तत्वों को । श्रद्धा यथार्थ फिर करके, हरो मिथ्यात्व अमंगल ॥१०॥ हृदय में सुख व शान्ति का, भरा है कोष उत्तम ही। अनुभव धर्म से करना, भटकना फिर नहीं जंगल ॥११॥ इसी के वास्ते धर्म, कहा है मुक्किठं मंगल । विनयवस "राज" की येही, करेगा आपका मंगल ॥१२॥ राजमल भंडारी-आगर ( मालवा ) १ अभिलाषा. २ देव, गुरु, धर्म (30) * *Page Navigation
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