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ज्ञानसार
ठीक उसी भाँति जब तक जीवात्मा में परपुद्गल / बाह्य पदार्थों के प्रति अनन्य आकर्षण-और आसक्ति (लगन) विद्यमान है, इहलौकिक और पारलौकिक पौद्गलिक सुखों की स्पृहा है, तबतक वह (मनुष्य) तन-मन से कितनी भी धर्मक्रियायें क्यों न करे, वे क्रियायें उसे कतई लाभ नहीं पहुँचाती, उसका कल्याण नहीं करतीं । मन में सांसारिक विषयों की लालसा (वासना) और आचरण में धर्म है, ऐसा मनुष्य कुलटा नारी के समान ही है ।
वह नानाविध धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से हमेशा अपनी पौद्गलिक सुखों की अभिलाषा पूरी करने की आशा रखता है । फलतः उसकी मौनावस्था अथवा काया का योग-ध्यानादि सब कुछ आत्म-विशुद्धि को सहज - सुलभ बनाने के बजाय अवरोध ही पैदा करता है । उसकी मानसिक अशान्ति, संताप और क्लेशों में निरन्तर वृद्धि होती रहती है
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हम परमात्मा की पूजा-अर्चना करते हैं, प्रतिक्रमण - सामायिकादि अनुष्ठान करते हैं, नियमित रूप से तप - जप करते हैं, धर्मध्यान करते हैं; फिर भी हमें मानसिक शान्ति क्यों नहीं मिलती ? हमारी अशान्ति दूर क्यों नहीं होती ?" ऐसे असंख्य प्रश्न, धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति में और लोगों में आम चर्चा के विषय बने हुए हैं । इसका मूल कारण यह है कि हृदय पौद्गलिक सुखों के पीछे पागल हो गया है। अस्थिर, चंचल और विक्षिप्त बन गया है। हम धर्माचरण अवश्य करना चाहते हैं, लेकिन हमारी पौद्गलिक सुखों की लालसा / आसक्ति कम करना नहीं चाहते । ऐसी विषम परिस्थिति में हमारी धर्मक्रियायें भला कल्याणकारी कैसे बन सकती हैं ? किस तरह शुभ और शुद्ध अध्यवसाय पैदा कर सकती है ? अर्थात् यह सब असम्भव ... एकदम असम्भव है ।
याद रखो, जब तक हमारा मन विभावदशा में अनुरक्त रहेगा, तब तक उत्तमोत्तम धर्मक्रियाओं के माध्यम से भी आत्मकल्याण / आत्मसिद्धि होना सर्वथा मुश्किल है।
अन्तर्गतं महाशल्यमस्थैर्य यदि नोद्धृतम् । क्रियौषधस्य को दोषस्तदा गुणमयच्छतः ॥ ३ ॥४॥