________________
६९
अपने ही शुद्ध स्वभाव में, ज्ञानी रमण करते सदा । चिद्रूप में तल्लीन हो, पाते परम शिव शर्मदा ॥ १० ॥
शर्मदा - सुख देने वाला ज्ञानी परम ध्यानी स्वयं में, लीन कर उपयोग को। निज का ही करते अनुभवन,तजकर सकल संयोग को | जिनवर कहे ज्ञानी वही, जो जानते इस मर्म को । वे प्राप्त करते हैं महा, महिमा मयी जिन धर्म को ॥ ११ ॥ अरिहन्त सिद्धों सम स्वयं, शुद्धात्मा प्रत्यक्ष है । यह स्वानुभूति गम्य है, निज में रम, दृढ़ लक्ष्य है | सत देव पूजा करूं मैं, पा जाऊँ सिद्धि की निधि । उपयोग को निज में लगाना, देव पूजा की विधि || १२ ॥ निश्चय सु पूजा है यही, मंगलमयी सुखवर्द्धिनी । इससे प्रगटता सिद्ध पद, आनन्द वृद्धि षट् गुणी ।। व्यवहार से पद देव प्राप्ति, हेतु जो साधन कहे । मैं करूं वैसी साधना, उस भावना में मन रहे || १३ ॥
व्यवहार पूजा का स्वरूप अरिहन्त सिद्धाचार्य अरू, उवझाय मुनि महाराज हैं। यह पंच परमेष्ठी परम गुण, आत्मा के काज हैं । निज आत्मा में ही प्रगटते, देव के यह गुण सभी। पर में करो अन्वेषणा, निज गुण मिलेंगे न कभी ॥ १४ ॥ सम्यक् सुदर्शन ज्ञान चारित, मयी है निज आत्मा। पहिचानते ज्ञानी इसे, नहिं जानते बहिरात्मा ॥ निज आत्मा को छोड़, पर में रत्नत्रय मिलते नहीं। जड़ में कभी चैतन्य के, सुन्दर कमल खिलते नहीं ॥ १५ ॥ चतुरानुयोगों और जिनवाणी, मयी निज आत्मा । है स्वयं के वलज्ञान मय, सर्वज्ञ निज परमात्मा ॥ सम्यक्त्व आदि अष्ट गुण मय, सिद्ध सम है आत्मा । सोलह जु कारण भाव से, प्रगटे सुपद परमात्मा || १६ ।। होता इन्हीं भावों से, तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध है । इस अर्थ में शुभ रूप है, पर आत्मा निर्बन्ध है || उत्तम क्षमा आदि कहे, व्यवहार से दश धर्म हैं । इनका धनी निज आत्मा, यह जिन वचन का मर्म है ॥ १७ ॥ अष्टांग सम्यग्दृष्टि के, नि:शंकितादि जो कहे । अष्टांग सम्यग्ज्ञान मय, ज्ञानी सदा निज में रहे ||