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जिसमें न होवे दोष कोई, पूर्व अपर विरोध का । उस शास्त्र का स्वाध्याय करना, लक्ष्य रख निज बोध का ॥ ४६॥ सत्शास्त्र का अध्ययन मनन, व्यवहार से स्वाध्याय है। ध्रुव धाम का चिंतन मनन, नय नियत का अभिप्राय है ॥ मन वचन तन की एकता कर, लीन हो निज ज्ञान में। स्वाध्याय निश्चय है यही, स्वाधीन हो निज ध्यान में ॥ ४७ ॥
शुद्ध संयम संयम कहा है द्विविध, पहला इन्द्रियाँ मन वश करो । षट् काय जीवों पर दया, रक्षा अपर संयम धरो || पंचेन्द्रियों के अश्व चंचल हैं, इन्हें वश में रखें । संयम सहित धर कर धरम, अमृत रसायन को चलूँ ॥ ४८ ॥ व्यवहार से संयम कहा, निश्चय सुरत निज की रहे । 'मैं शुद्ध हूँ' उपयोग सम्यक ज्ञान धारा में बहे || त्रय रत्न का निर्मल सलिल, जो ज्ञान मय नित बह रहा । अवगाह इसमें नित करो, निश्चय यही संयम कहा ॥ ४९ ॥
शुद्ध तप इच्छा रहित निःक्लेश हो, तप साधना उर धारना । द्वादस विधि तप आचरण कर, कर्म रिपु निरवारना । रागादि सब विकृत विभावों, पर न दृष्टि डालना । निज रूप में लवलीन होकर, शुद्ध तप को पालना ॥ ५० ॥ निश्चय तथा व्यवहार से, शाश्वत रहे तप की कथा । निर्द्वन्द होकर धारि लो, मिट जायेगी जग की व्यथा ॥ पुरुषार्थ के इस मार्ग पर, आलस कभी करना नहीं। यह शुद्ध तप पहुँचायेगा, जहां ज्ञान झड़ियां लग रहीं ॥ ५१ ॥
शुद्ध दान जो वीतरागी साधु उत्तम, और मध्यम अणुव्रती । तत्वार्थ श्रद्धानी जघन है, पात्र अविरत समकिती ॥ श्रावक सदा देता सु पात्रों को, चतुर्विधि दान है । आहार औषधि अभय अरु, चौथा कहा वह ज्ञान है ॥ ५२ ।। शुभ भावना से विधि सहित, यह दान है व्यवहार से । होगा सु निश्चय दान जब, मुंह मोड़ लो संसार से |