Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 151
________________ १३६ पर्याय पर (दिस्टि) दृष्टि जाते ही (सहसा) अचानक उसी क्षण (अंतरं) लीनता में अंतर आ जाता है। अर्थ - आत्म स्वभाव के विस्मरण रूप अज्ञान को मत देखो, ज्ञायक भाव के आश्रय से ममल स्वभाव में लीन रहो। लीनता में व्यवधान रूप ज्ञानान्तर को भी मत देखो, क्योंकि पर पर्याय पर दृष्टि जाते ही स्वभाव लीनता में अचानक अंतर आ जाता है। इसलिये ज्ञान स्वभाव में सदैव सावधान रहो। प्रश्न १- "अन्यानं नह दिस्टं" इस गाथा का अभिप्राय स्पष्ट कीजिये? उत्तर - ज्ञान स्वभावी ममल स्वरूप में दृढ़ता पूर्वक लीनता ही इस गाथा का अभिप्राय है। पर पर्याय पर दृष्टि जाते ही स्वभाव लीनता में व्यवधान आ जाता है। चारित्र की शिथिलता का कारण भी यही है। प्रश्न २- अज्ञान क्या है ? उत्तर - उपयोग (दृष्टि) का पर्यायोन्मुखी होने पर स्वभाव का विस्मरण होना ही अज्ञान है। प्रश्न ३- ज्ञानांतर किसे कहते हैं? उत्तर - सम्यकदृष्टि ज्ञानी अपने स्वभाव के लक्ष्य पूर्वक साधना में संलग्न रहता है। ज्ञान रूप परिणत रहता है। परन्तु पर पर्याय पर दृष्टि जाते ही ज्ञान स्वभाव की अनुमोदना में (लीनता में) अचानक अंतर आ जाता है इसी को ज्ञानांतर कहते हैं। गाथा-१४ ज्ञानमयी आत्मा ही शुद्धात्मा परमात्मा अप्पा अप्प सहावं, अप्पा सुद्धप्प विमल परमप्पा । परम सरूवं रूवं, रूवं विगतं च ममल न्यानस्य । अन्वयार्थ - (अप्पा) आत्मा (अप्प सहाव) आत्म स्वभाव मय है (अप्पा) आत्मा (सुद्धप्प) शुद्धात्मा (विमल) कर्म मल रहित (परमप्पा) परमात्मा है (च) और (ममल न्यानस्य) ममल ज्ञान (रूव) स्वरूप से (विगत) [व्यक्त] प्रगट है [ऐसा] (परम) उत्कृष्ट (रूव) रूप ही अपना (सरूव) स्वरूप है। __अर्थ - आत्मा, आत्म स्वभावमय है, वह उपमा रहित है, समस्त कर्म मलों से रहित शुद्धात्मा परमात्मा है और अपने ममल ज्ञान स्वरूप से प्रगट है, ऐसा मंगलमय परम उत्कृष्ट रूप ही अपना स्वरूप है, यही इष्ट आराध्य और उपादेय है, इसी की साधना - आराधना करने में जीवन की सार्थकता है। प्रश्न १- आत्मा आत्म स्वभाव मय है इसका क्या अभिप्राय है? उत्तर - आत्मा, आत्म स्वभाव मय है अर्थात् स्वयं - स्वयं के स्वभाव में तन्मय है। इसकी उपमा पर से नहीं की जा सकती यह अपने स्वभाव से परम ज्ञानमयी है। चैतन्य तत्त्व ज्ञानमय स्वयं ज्ञान रूप है इस प्रकार आत्मा आत्म स्वभावमय है। प्रश्न २- आत्म धर्म की महिमा क्या है ? उत्तर - जिस प्रकार रत्नों में श्रेष्ठ वज नामक हीरा है, बड़े वृक्षों में उत्तम बावन चंदन है,उसी प्रकार धर्मों में श्रेष्ठ रत्नत्रयमयी आत्म धर्म है जो संसार के दु:खों से छुड़ाकर मोक्ष प्राप्त कराने वाला है।

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