Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 166
________________ १५१ के आधार पर ही विभाजित किया है। सम्पादक ने इन अध्यायों को द्रव्य-गुण-पर्याय, कर्म का स्वरूप,जीव की खोज, मुक्ति के सोपान और अधिगम के उपाय नामक शीर्षकों से उल्लिखित किया है - प्रथम अध्याय : द्रव्य - गुण - पर्याय इस अध्याय में द्रव्य - गुण - पर्याय का सामान्य स्वरूप, उनके भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से वर्णन प्रश्न क्रमांक १ से १३४ तक किया गया है। इसके अन्तर्गत सामान्यगुण, विशेषगुण, पुद्गलस्कन्ध, पाँच शरीर, उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य, लोक- अलोक, अस्तिकाय, अनुजीवी-प्रतिजीवी गुण, चार अभाव 'श्रद्धा ज्ञान चारित्र' ज्ञान -दर्शन - सुख - वीर्य आदि विषयों का भी यथा सम्भव वर्णन किया गया है। द्वितीय अध्याय : कर्म का स्वरूप इस अध्याय में संसारी जीव के साथ सम्बद्ध कर्मों का स्वरूप प्रश्न क्रमांक १३५ से ३४१ तक कुल २०७ प्रश्नोत्तरों के द्वारा किया गया है। इसके अन्तर्गत चार प्रकार के कर्मबन्ध, उनके भेद-प्रभेद, १४८ प्रकार के कर्म, जीवविपाकी आदि कर्म, उनके भेद, घाति-अघाति कर्म, सर्वघाति - देशघातिकर्म, पाप-पुण्यकर्म आदि, सागर, पल्य आदि काल, कर्मों की उदय, उदीरणा आदि अवस्थाएँ, निषेक स्पर्द्धक, वर्गणा, वर्ग, अविभाग प्रतिच्छेद, समयप्रबद्ध, गुणहानि आदि जैन गणितीय विषय, आस्रव और उसके भेद, आस्रव के कारण-मिथ्यात्व -अविरति-प्रमाद-कषाय योग तथा उनके द्वारा होने वाले बन्ध, उपादान - निमित्तकारण आदि विषयों का वर्णन किया गया है। (शेष अध्याय आगामी वर्ष में) गुरुवर्य पण्डित श्री गोपालदास वरैया दारा रचित श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका (मंगलाचरण - उपजाति छन्द) नत्वा जिनेन्द्र गत सर्व दोष, सर्वज्ञ देवं हित दर्शकं च । श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिके यं, विरच्यते स्वल्प धियां हिताय ॥ अर्थ - मैं (गत सर्व दोष) सर्वदोषों से रहित वीतरागी (सर्वज्ञ देव) सर्वज्ञदेव (च) और (हित दर्शक) परम हितोपदेशी - ऐसे (जिनेन्द्र) जिनेन्द्र परमात्मा को (नत्वा) नमस्कार करके (स्वल्प धियां हिताय) अल्पबुद्धि के धारक जीवों के हित के लिए (इयं) यह (श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका) श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका (विरच्यते) लिखता हूँ। विशेषार्थ - यहाँ ग्रन्थकार ने मंगलाचरण करते हुए जिनेन्द्र परमात्मा के तीन गुण-वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी का स्मरण करते हुए उन्हें नमस्कार किया है तथा ग्रन्थ लिखने की प्रतिज्ञा करते हुए वे लिखते हैं कि मैंने यह श्री जैन सिद्धांत प्रवेशिका, अत्यन्त अल्पबुद्धि के धारक जीवों को ध्यान में रखकर बनाई है अर्थात् विशेष बुद्धिमानजन इसे पढ़कर किसी प्रकार का विसंवाद न करें - ऐसी प्रार्थना भी इसमें सम्मिलित है अर्थात् इससे उनकी विनम्रता का परिचय भी मिलता है।

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