Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 186
________________ प्रश्न १६१- अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ किन्हें कहते हैं ? उत्तर - प्रश्न १६२- प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ किन्हें कहते हैं ? उत्तर - - प्रश्न १६३ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और नोकषाय किन्हें कहते हैं? उत्तर - - प्रश्न १६५उत्तर - प्रश्न १६४ आयुकर्म किसे कहते हैं ? उत्तर जो कर्म आत्मा के देशचारित्र परिणाम को घातते हैं उन्हें अप्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ कहते हैं। - प्रश्न १६७ - उत्तर जो कर्म आत्मा के सकलचारित्र परिणाम को घातते हैं उन्हें प्रत्याख्यानावरण क्रोध मान माया लोभ कहते हैं। - १७१ जो कर्म आत्मा के यथाख्यातचारित्र परिणाम को घातते हैं उन्हें संज्वलन क्रोध मान माया लोभ और नोकषाय कहते हैं। प्रश्न १६६ - नाम कर्म किसे कहते हैं ? उत्तर (यद्यपि संज्वलन कषाय और नोकषाय में अन्तर है तथापि दोनों का अभाव साथ-साथ होता है तथा यथाख्यात चारित्र को घातने की अपेक्षा दोनों में समानता है अतः इन्हें साथ-साथ लिया गया है।) जो कर्म आत्मा को नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के शरीर में रोककर रखता है उसे आयुकर्म कहते हैं अर्थात् आयुकर्म आत्मा के अवगाहनगुण को घातता है । आयुकर्म के कितने भेद हैं ? आयुकर्म के चार भेद हैं नरकायु, तियंचायु, मनुष्यायु और देवायु । ( बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह के भाव से नरकायु का बन्ध होता है।) (-तत्वार्थसूत्र ६/१५) (माया या छलकपट के भाव से तिर्यंचायु का बन्ध होता है।) ( तत्वार्थसूत्र ६/१६) (अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह के भाव तथा स्वाभाविक सरल परिणाम से मनुष्यायु का बन्ध होता है ।) ( - तत्वार्थसूत्र ६ / १७ -१८ ) (सरागसंयम, संयमासंयम, सम्यग्दर्शन, अकामनिर्जरा और बालतप के भाव से देवायु का बन्ध होता है ।) (- तत्वार्थसूत्र ६ / २० - २१ ) जो कर्म जीव को गति आदि अनेक प्रकार से परिणमाता है अथवा शरीरादिक बनाता है, उसे नाम कर्म कहते हैं अर्थात् नामकर्म आत्मा के सूक्ष्मत्वगुण को घातता है। (नामकर्म के मुख्यतः दो भेद हैं- शुभनामकर्म और अशुभनामकर्म । मन-वचन-काय के योगों में कुटिलता और विसंवादन के भाव से अशुभनामकर्म का बन्ध होता है तथा इनसे विपरीतभाव से शुभनामकर्म का बन्ध होता है।) ( तत्वार्थसूत्र ६/२२-२३) नाम कर्म के कितने भेद हैं ? नाम कर्म के तिरानवे (९३) भेद हैं - चार गति ( नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव), पाँच जाति (एकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय), पाँच शरीर ( औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण), तीन अंगोपांग (औदारिक, वैक्रियिक और आहारक), एक निर्माण, पाँच बन्धन (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक तैजस और कार्मण), पाँच संघात (औदारिक, वैक्रियिक, आहारक तैजस और कार्मण) छह संस्थान (समचतुरस्र, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक, वामन और हुण्डक) छह संहनन (वजवृषभनाराच, वज्रनाराच, नाराच, अर्द्धनाराच, कीलक, असंप्राप्तास्पाटिका) पाँच वर्ण ( काला, पीला, नीला, लाल और सफेद), दो गन्ध (सुगन्ध और दुर्गन्ध), पाँच रस

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