Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 200
________________ १८५ से दूसरे समय के द्रव्य का परिमाण ४८०, तीसरे का ४४८, चौथे का ४१६, पांचवे का ३८४,छठवें का ३५२, सातवेंका ३२० और आठवें का २८८ निकलता है। इसी प्रकार द्वितीयादि गुण हानियों में भी प्रथमादि समयों के द्रव्य का परिमाण निकाल लेना चाहिए। प्रश्न २८८- निषेकहार किसे कहते हैं? उत्तर - गुण हानि आयाम से दुगुने परिमाण को निषेकहार कहते हैं। जैसे- ऊपर के दृष्टान्त में गुण हानि आयाम ८ से दुगने १६ को निषेकहार कहते हैं। प्रश्न २८९- चय किसे कहते हैं? - श्रेणी - व्यवहार गणित में समान हानि या समान वृद्धि के परिमाण को चय कहते हैं। प्रश्न २९०- इस प्रकरण में गुण हानि के चय का परिमाण निकालने की क्या रीति है? उत्तर निषेकहार में एक अधिक गुण हानि आयाम का परिमाण जोड़कर आधा करने से जो लब्ध आवे, उसको गुण हानि आयाम से गुणा करें। इस प्रकार गुणा करने से जो गुणनफल होता है, उसका भाग विवक्षित गुण हानि के द्रव्य में देने से विवक्षित गुण हानि के चय का परिमाण निकलता है। जैसे - निषेकहार १६ में एक अधिक गुण हानि आयाम ९ जोड़ने से २५ हुए। पच्चीस के आधे १२.५ को गुण - हानि आयाम ८ से गुणाकार करने से १०० होते हैं। इस १०० का भाग विवक्षित प्रथम गुणहानि के द्रव्य ३२०० में देने से प्रथम गुण हानि संबंधी चय ३२ आया। इसी प्रकार द्वितीय गुण हानि के चय का परिमाण १६, तृतीय का ८, चतुर्थ का ४, पंचम का २ और अन्तिम का १ जानना चाहिए। प्रश्न २९१- अनुभाग की रचना का क्रम क्या है? उत्तर - द्रव्य की अपेक्षा से जो रचना ऊपर बतायी गयी है, उसमें प्रत्येक गुण-हानि के प्रथमादि समय सम्बधी द्रव्य समूह को वर्गणा कहते हैं और उन वर्गणाओं में जो परमाणु हैं, उनको वर्ग कहते हैं, प्रश्न २८७ के उदाहरण के अनुसार प्रथम गुणहानि के प्रथम वर्गणा में जो ५१२ वर्ग हैं उनमें अनुभागशक्ति के अविभाग-प्रतिच्छेद समान हैं और वे द्वितीयादि वर्गणाओं के वर्गों के अविभाग - प्रतिच्छेदों की अपेक्षा सबसे न्यून अर्थात् जघन्य हैं। द्वितीयादि वर्गणा के वर्गों में एक-एक अविभाग-प्रतिच्छेद की अधिकता के क्रम में जिस वर्गणा पर्यन्त एक - एक अविभाग - प्रतिच्छेद बढ़ते हैं, वहाँ तक की वर्गणाओं के समूह का नाम एक स्पर्द्धक है और जिस वर्गणा के वर्गों में युगपत् अनेक अविभाग प्रतिच्छेदों की वृद्धि होकर प्रथम वर्गणा के वर्गों के अविभाग-प्रतिच्छदों की संख्या से दुगनी संख्या हो जाती है, वहाँ से दूसरे स्पर्द्धक का प्रारंभ समझना चाहिए। इस ही प्रकार जिन - जिन वर्गणाओं के वर्गों में प्रथम वर्गणा के वर्गों के अविभाग-प्रतिच्छेदों की संख्या से तिगुने,चौगुने आदि अविभाग-प्रतिच्छेद होते हैं वहाँ से तीसरे, चौथे आदि स्पर्द्धकों का प्रारम्भ समझना चाहिए। इस प्रकार एक गुण-हानि में अनेक स्पर्द्धक होते हैं।

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