Book Title: Gyanpushpa
Author(s): Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada
Publisher: Taran Taran Gyan Samsthan Chindwada

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Page 160
________________ गाथा-30 ज्ञान विज्ञानमयी स्वभाव में रहने की प्रेरणा संसार सरनि नहु दिस्टं, नहु दिस्टं समल पर्जाव सभावं । न्यानं कमल सहावं, न्यानं विन्यान कमल अन्मोयं ॥ अन्वयार्थ - [हे कमल श्री] (संसार) संसार के (सरनि) परिभ्रमण को (नहु दिस्ट) मत देखो (समल) रागादि रूप विकारी (पर्जाव सभाव) पर्याय,विभाव परिणमन (नहु दिस्ट) को भी मत देखो (कमल) कमल (सहावं) स्वभाव (न्यानं) ज्ञानमयी है (न्यानं विन्यान) ज्ञान विज्ञान सहित (कमल) ज्ञायक स्वभाव की (अन्मोयं) अनुमोदना करो। अर्थ- हे कमल श्री ! संसार के परिभ्रमण को मत देखो, रागादि रूप जो विकारी पर्याय अर्थात् कर्मोदय जनित विभाव परिणमन है, इसको भी मत देखो, अपना कमल स्वभाव ज्ञानमयी है। ज्ञान विज्ञान सहित ज्ञायक स्वभाव की अनुमोदना करो, स्वभाव के आश्रय से ही आत्म कल्याण होता है। प्रश्न १- "संसार सरनि नहु दिस्टं" इस गाथा का क्या आशय है ? उत्तर - ज्ञान स्वभाव का आश्रय करने से रागादि विकारी भाव उत्पन्न नहीं होते, अशुद्ध पर्याय का अभाव हो जाता है तथा संसार परिभ्रमण छूट जाता है। प्रश्न २- राग-द्वेष को मिटाने का क्या उपाय है? उत्तर - राग - द्वेष को मिटाने के लिये निरंतर यह विचार करना चाहिये कि अपने न चाहने पर भी अनुकूलता-प्रतिकूलता आती है, संयोग-वियोग होता है, क्योंकि अनुकूलता-प्रतिकूलता, संयोग-वियोग, हानि-लाभ,जीवन-मरण यह सब पूर्व कर्म उदयानुसार होते हैं, इसलिये इन्हें अच्छा - बुरा नहीं मानना, अपना आत्म स्वरूप इन सबसे भिन्न है। यह निर्णय करना ही राग - द्वेष को मिटाने का उपाय है। गाथा-३१ जिनेन्द्र भगवान का कल्याणकारी दिव्य संदेश जिन उत्तं सद्दहन, सद्दहन अप्प सुद्धप्प ममलं च । परम भाव उपलब्धं, परम सहावेन कम्म विलयंति ॥ अन्वयार्थ - (जिन) जिनेन्द्र भगवान के (उत्तं) कहे हुए वचनों पर (सद्दहन) श्रद्धान करो [कि] (अप्प) मैं आत्मा (ममल) ममल स्वभावी (सद्धप्प) शुद्धात्मा हं (सहहन) ऐसे श्रद्धान से (परम भाव परम पारिणामिक भाव (उपलब्ध) उपलब्ध होता है (च) और (परम) परम, श्रेष्ठ, उत्कृष्ट (सहावेन) स्वभाव में रहने से (कम्म) कर्म (विलयंति) विला जाते हैं । अर्थ - वीतरागी परमात्मा केवलज्ञानी श्री जिनेन्द्र भगवान के कहे हुए वचनों पर श्रद्धान करो कि मैं आत्मा स्वभाव से ममल स्वभावी शुद्धात्मा परमात्मा हूँ। ऐसे यथार्थ श्रद्धान से परम भाव उपलब्ध होता है और अपने परम पारिणामिक ममल स्वभाव में रहने से कर्म विलीन हो जाते हैं, यही मुक्ति का मार्ग है।

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